क्रांति कुमार पाठक
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आज नवनिर्वाचित राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू जी देश के पन्द्रहवें राष्ट्रपति के रूप में संसद के सेंट्रल हॉल में शपथ ग्रहण करना भारतीय लोकतंत्र के लिए एक एतिहासिक अवसर है। अत्यंत गरीब पृष्ठभूमि की जनजातियों में भी सबसे पिछड़े एवं कर्मठता के बलबूते उनका सर्वोच्च पद तक पहुंचना देशवासियों के साथ साथ जनजातीय समुदाय के लिए भी गौरव का क्षण है। यह शायद भारत में ही संभव है कि ऐसे वंचित सामाजिक व आर्थिक पृष्ठभूमि की महिला भी शीर्ष पद पर पहुंच सकीं। हालांकि ऐसे समाज को शीर्ष पर प्रतिनिधित्व देने में देश को सात दशकों की लंबी प्रतीक्षा करनी पड़ी है। आज हमारा लोकतंत्र इस प्रश्नचिह्न से मुक्त हो गया है। स्वाधीनता आंदोलन में भी आदिवासी समाज का योगदान-बलिदान अविस्मरणीय रहा है, लेकिन स्वतंत्रत भारत में सरकारों ने लंबे समय तक उन्हें विकास की मुख्य धारा से जोड़ने एवं उनके सामाजिक-आर्थिक उत्थान और राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किए। जबकि देश की कुल जनसंख्या में आदिवासी समुदाय की संख्या लगभग दस फीसदी के आसपास है।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई जी के नेतृत्व में जब पहली बार भाजपानीत राजग की सरकार बनी तो इस समाज के उत्थान एवं समृद्धि के लिए 1999 में एक अलग मंत्रालय बनाने के साथ ही 89 वें संविधान संशोधन के जरिए राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग की स्थापना कर इनके हितों को सुनिश्चित करने की पहल की। अटल जी के इस पहल को पिछले आठ सालों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने और सशक्त ढंग से आगे बढ़ा रहे हैं।
सचमुच, वह वर्ग जो सदियों से अपने अधिकारों से वंचित रहा हो, उस वर्ग के व्यक्ति को जब मान-सम्मान मिलता है तो समूचा वर्ग प्रफुल्लित होता है राष्ट्रपति के रूप में जब देश का प्रथम नागरिक बनने का अवसर उस वंचित वर्ग के किसी सदस्य को मिलता है तो उस वर्ग के साथ साथ अन्य सामाजिक वर्गों का मनोबल भी बढ़ता है। अपनी संस्कृति एवं सभ्यता को लेकर बहुत सजग रहने वाला आदिवासी समाज जब अपनी पूरी कार्यक्षमता के साथ देश के मुख्यधारा के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने लगेगा, तब जाकर ही ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ का सपना पूरा हो सकेगा। हालांकि द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने के बाद एक नई बहस छिड़ गई है कि उनके राष्ट्रपति बनने से शोषित वंचित आदिवासी वनवासी समुदाय का भला क्या भला होगा। विपक्ष के कुछ दलों ने द्रौपदी मुर्मू की राष्ट्रपति उम्मीदवार बनने के समय ही इसे आदिवासी समुदाय के लिए प्रलोभन मात्र कहा था। उनका यह मानना था कि यह चयन केवल प्रतीकात्मक होगा। विपक्षी दलों के कुछ लोगों को यह भी कहना है कि वर्तमान समय में राष्ट्रपति मात्र रबड़ स्टांप का काम कर रहे हैं, जबकि देश के सबसे बड़े संवैधानिक पद को लेकर यह कहा जाना उचित नहीं है, जब मामला राष्ट्र एवं राष्ट्रीय सम्मान से जुड़ा हो। फिर हम भली भांति जानते हैं कि स्वतंत्रता के बाद देश का चित्र ऐसा ही दिखाई देता था कि प्रधानमंत्री का बेटा प्रधानमंत्री, कलक्टर का बेटा कलक्टर, डॉक्टर का बेटा डॉक्टर और शासकीय बड़े पदों पर बैठे अधिकारियों का बेटा उसी लाइन पर चलता था, यह उसकी व्यक्तिगत योग्यता न होकर पारिवारिक पृष्ठभूमि से मिली विरासत के आधार पर ही तय किया जाता था। इससे देश में उन प्रतिभाओं को बहुत पीछे किया गया जो वास्तव में कुछ पाने का अधिकार रखती थी। यह बात सही है कि जनजातीय समुदाय की कोई राजनीतिक पहुंच नहीं थी, इसका आशय यही है कि पूर्व में राजनीतिक पहुंच वाले व्यक्ति ही उच्च पदों पर पहुंच पाते थे, लेकिन केंद्र नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपानीत राजग सरकार आने के बाद इसमें व्यापक परिवर्तन दिखने लगा है। विगत कुछ वर्षो से सरकार की ओर से दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान में अब वह व्यक्ति नहीं आते जिनकी राजनीतिक पहुंच थी, बल्कि यह सम्मान वहां तक पहुंचे हैं, जिसके वे वास्तविक हकदार थे।
द्रौपदी मुर्मू से यह उम्मीद है कि वह राष्ट्रहित में वैसा ही कार्य करेंगी जिसके लिए उन्हें जाना जाता है। उनके त्याग एवं तपस्या की मिसाल यूं ही नहीं दी जाती, बल्कि उन्होंने समय आने पर उसे साबित भी किया है। उनके व्यक्तिगत संघर्ष के बारे में तो सबने पढ़ा, सुना है, लेकिन झारखंड का राज्यपाल रहते हुए उन्होंने कुछ ऐसे निर्णय लिए थे जो उनकी जनहितवादी सोच को परिलक्षित करने के लिए पर्याप्त है। झारखंड की राज्यपाल रहते हुए उन्होंने भाजपा के नेतृत्व में बनी रघुवर दास सरकार के छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम को विधानसभा में पारित होने के बाद अपने पास रोककर रख लिया। फिर लगभग सात महीने के बाद आदिवासी हितों की रक्षा के लिए पुनर्विचार करने को राज्य सरकार को वापस भेज दिया। उनका यह निर्णय उनकी मजबूत इच्छाशक्ति एवं वनवासी समाज का ख्याल रखने के तौर पर देखा जाता है। उल्लेखनीय है कि इन संशोधन विधेयक द्वारा तत्कालीन राज्य सरकार कृषि के अलावा आदिवासियों की जमीन की व्यावसायिक उपयोग की अनुमति जमीन मालिक द्वारा देने का प्रावधान कर रही थी। ऐसे विधेयक को वापस कर कानून नहीं बनने देने के मुर्मू के निर्णय की तब विपक्षी दलों ने भी सराहना की थी
इसी प्रकार जब झारखंड की वर्तमान सरकार ने ट्राइबल एडवाइजरी काउंसिल का गठन कर अनुच्छेद 44 के जरिए आदिवासी हितों की रक्षा के लिए राज्यपाल को प्राप्त शक्ति को कम करने की कोशिश की तो उसका विरोध भी द्रौपदी मुर्मू ने किया एवं राज्यपाल रमेश बैस को अवगत कराया जिसके बाद उन्होंने ट्राइबल एडवाइजरी काउंसिल गठन की फाइल को राज्य सरकार को वापस कर दिया। ये कार्य द्रौपदी मुर्मू के जल, जंगल और जमीन से जुड़ाव के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। ऐसे में जब वह भारत की प्रथम नागरिक बन गई हैं तो उनसे आमजन की उम्मीदें भी बढ़ी हुई हैं। देश का वह समुदाय जो अब तक मुख्यधारा से दूर था, उसकी सहभागिता अब प्रत्यक्ष तौर पर दिखेगी एवं कार्बन उत्सर्जन कम कर पर्यावरण की रक्षा के साथ देश आधुनिक विकास के बीच समन्वय भी कायम होगा।