“खतरे में पड़ी पारिवारवाद की राजनीति”


क्रांति कुमार पाठक
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कटु आलोचक भी मानते हैं कि उन्होंने भारतीय राजनीति के व्याकरण को क‌ई मायनों में बदल दिया है। परिश्रम, दक्षता और योग्यता तेजी से चाटुकारिता और परिवारवाद वाली राजनीति की जगह ले रही है। वैसे भी जो पार्टी लंबे समय तक सत्ता में रहती है, वही भविष्य के लिए खेल के नियम तय करती है। सभी छोटे खिलाड़ी उस फार्मूले का अनुसरण करते हैं। कांग्रेस भी सत्ता में रही है। लिहाजा अधिकांश पार्टियों ने उसका अनुकरण किया। कांग्रेस ने भारतीय राजनीति को ‘परिवारवाद की राजनीति’ का सूत्र सिखाया। मदन मोहन मालवीय, बाल गंगाधर तिलक, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और महात्मा गांधी सरीखे दिग्गजों ने कांग्रेस को एक आंदोलन के रूप में चलाया, लेकिन आजादी के बाद यह नेहरू-गांधी परिवार की निजी संपत्ति मात्र बनकर रह गई। उन्होंने समय के साथ खुद को देश के ‘प्रधान परिवार’ के रूप में स्थापित कर लिया। जिस वजह से कांग्रेस ने सरदार वल्लभ भाई पटेल, डॉ भीमराव अंबेडकर और लाल बहादुर शास्त्री जैसे नेताओं को भी भुला दिया। पार्टी की कमान हमेशा नेहरू -गांधी परिवार के सदस्यों के बीच ही घूमती रही। जब कभी पार्टी के किसी नेता का कद पार्टी के प्रधान परिवार के सदस्यों से ऊंचा होने लगा तो उसे पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। पार्टी कार्यकर्ताओं में यह भ्रम पैदा कर दिया गया कि प्रधान परिवार के सदस्य ही कांग्रेस को एक साथ बांध कर रख सकते हैं। दुर्भाग्य से क्षेत्रीय क्षत्रपों ने भी कांग्रेस की इस नीति का अनुसरण किया। जम्मू कश्मीर में अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार राज्य के प्रधान परिवार बन गए। हरियाणा में देवीलाल, बिहार में लालू यादव, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव परिवार राज्य के प्रधान परिवार बन गए। इसी तरह तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार, आंध्र प्रदेश में नायडू एवं वाइएसआर परिवार, कर्नाटक में देवगौड़ा परिवार, महाराष्ट्र में ठाकरे व शरद पवार परिवार, तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव परिवार ने अपनी-अपनी पार्टियों को पारिवारिक कंपनियों में बदल दिया।
योग्यता पर प्रथम परिवार को हावी रखने के लिए कांग्रेस को ओर क‌ई चालें चलनी पड़ीं। पार्टी के प्रति सहानुभूति रखने वाले नौकरशाही एवं न्यायपालिका, मैत्रीपूर्ण मीडिया, जातिगत राजनीति और अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के माध्यम से चुनाव जीतने जैसे हथकंडे कांग्रेस के राजनीतिक व्याकरण का हिस्सा बन ग‌ए। निरंतर हार के बाद भी नेहरू-गांधी परिवार पार्टी के शीर्ष पर बना रहा। हद तो तब हो गई जब 2017 में राहुल गांधी ने वैश्विक स्तर पर परिवारवाद व वंशवाद की राजनीति का खुलकर बचाव किया।
हालांकि किसी के माता-पिता के व्यवसाय का अनुसरण करना स्वाभाविक है। किसी महान अभिनेता के बेटे का फिल्मों में आना, किसी क्रिकेटर के बेटे का घर के माहौल से क्रिकेट सीखना स्वाभाविक है। किंतु समस्या तब शुरू होती है जब अभिनेता का बेटा लगातार क‌ई फ्लाप फिल्मों को देने के बाद भी बड़े बैनरों की फिल्मों में काम करते रहते हैं या जब क्रिकेटर का बेटा प्रतिभावान न होने पर भी दशकों तक टीम का कप्तान बना रहे। कुछ इसी तरह राहुल गांधी, एचडी कुमारस्वामी, उद्धव ठाकरे, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव जैसे नेता क‌ई विफलताओं के बाद भी अपनी -अपनी पार्टियों को पारिवारिक कंपनियों के रूप में चला रहे हैं। इन परिवार आधारित – संचालित पार्टियों में जमीनी स्तर का कार्यकर्ता पार्टी का मुखिया बनने का सपना तक भी नहीं देख सकता है। इस मामले में निःसंदेह भाजपा का चरित्र कुछ अलग नजर आता है। वह अपने नेताओं की ‘योग्यता के आधार पर पदोन्नति देती है। यही भाजपा की सफलता का आधार है। पिछले दो दशकों में भाजपा के नेतृत्व पर एक नजर डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि जेपी का अमित से कोई पारिवारिक संबंध नहीं हैं। अमित शाह का राजनाथ सिंह से कोई संबंध नहीं है। राजनाथ सिंह का नितिन गडकरी या वैंकेया नायडू का लालकृष्ण आडवाणी से कोई संबंध नहीं है। वे सभी देश के विभिन्न क्षेत्रों और विभिन्न जातियों से आते हैं। इन सभी में केवल चीज समान है, वह है उनकी योग्यता व परिश्रम। जबकि इसके विपरीत प्रथम परिवारों के नेताओं के जीवन से परिश्रम और योग्यता कोसों दूर हैं। वे केवल अपने परिवार के नाम के सहारे ही विधानसभा या लोकसभा में हैं। नतीजतन 17 वीं लोकसभा में राहुल गांधी की उपस्थिति 56 फीसदी, अखिलेश यादव की 33 फीसदी और अभिषेक बनर्जी की 13 फीसदी है। जबकि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा यह सुनिश्चित करती है कि भले ही कोई किसी राजनीतिक परिवार से जुड़ा हो, लेकिन वह प्रदर्शन से समझौता नहीं करे। यही वजह है कि 17 वीं लोकसभा में प्रवेश साहिब सिंह वर्मा की उपस्थिति 93 फीसदी और पूनम महाजन की उपस्थिति 83 फीसदी रही है।
दरअसल, वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के साथ ही देश से परिवारवाद की राजनीति का सूरज अस्त होना शुरू हो गया है। नरेंद्र मोदी के कुशल नेतृत्व में भाजपा ने भ्रष्टाचार रहित और जन-केंद्रित शासन की बदौलत जाति और तुष्टिकरण की राजनीति पर जीत हासिल करनी शुरू कर दी है। परिवारवाद की राजनीति का मुकाबला करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने क‌ई राजनीतिक और शासन संबंधी प्रयोग किए हैं। भ्रष्टाचार रोकने के लिए जनकल्याणकारी योजनाओं को जनधन- आधार-मोबाइल से जोड़ा। इस तरह उन्होंने एक नया लाभार्थी वोट बैंक बनाया। इंटरनेट मीडिया के माध्यम से सीधे वोटरों तक पहुंचना शुरू कर दिया। आज नरेंद्र मोदी ने परिवारवाद की राजनीति के पैरोकारों की राजनीति को पूर्णकालिक काम की तरह मानने को बाध्य कर दिया है। कुल मिलाकर कहें तो नरेंद्र मोदी युग में परिवारवाद की राजनीति के ‘अच्छे दिन’ का अंत होना शुरू हो गया है।

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