क्रांति कुमार पाठक
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देश के किसी न किसी कोने से लोगों को संक्रमित खून चढ़ाने के कारण मरीजों की हालत गंभीर होने की खबर अक्सर ही आती रहती है। अभी पिछले दिनों ही खबर आई कि एक ब्लड बैंक से मिले संक्रमित खून चढ़ाने के कारण चार बच्चे एचआईवी पॉजिटिव हो गए। ये बच्चे थैलेसीमिया से पीड़ित थे, जिसमें मरीजों को खून चढ़ाने की जरूरत पड़ती है। इससे पहले चेन्नई में एक गर्भवती महिला को संक्रमित खून चढ़ाने से एचआईवी इन्फेक्शन होने का मामला प्रकाश में आया था। चिंताजनक है कि ऐसी घटनाएं देश में लगातार हो रही हैं।
दरअसल, देश में संक्रमित खून की एक बड़ी वजह देश में खून की अवैध बिक्री होना है।1996 में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद से पैसे लेकर खून देने पर बैन तो लग गया, लेकिन इसका काला धंधा अभी भी फलफूल रहा है। हालांकि रक्तदान के जरिए देश को जो खून मिलता है, उसमें 1.18 फीसदी हेपेटाइटिस बी, 0.43 फीसदी मामलों में हेपेटाइटिस सी और 0.24 फीसदी एचआईवी का संक्रमण पाया जाता है। आधुनिक तकनीक का अभाव, ब्लड टेस्ट में लापरवाही और विंडो पीरियड जैसे कारणों से मरीजों तक इन्फेक्शन पहुंचने की संभावना अच्छी खासी बढ़ जाती है। कुछ साल पहले एक जनहित याचिका के जवाब में खुद नेशनल एड्स कंट्रोल आॅर्गनाइजेशन ने बताया था कि बीते 17 महीनों में 2,234 लोग संक्रमित खून चढ़ाने के बाद एचआईवी का शिकार हुए हैं।
सर्जरी के साथ -साथ कई बीमारियों में भी खून चढ़ाया जाता है। लेकिन संक्रमित खून की मार सबसे ज्यादा हीमोफीलिया और थैलेसीमिया के मरीजों पर पड़ती है, क्योंकि इन मरीजों को महीने या 15 दिनों में ही खून चढ़ाने की जरूरत पड़ती है। एक अनुमान के मुताबिक 50 फीसदी हीमोफीलिया मरीज खून चढ़ाने के दौरान किसी न किसी तरह के इन्फेक्शन का शिकार हो ही जाते हैं। इसमें भी सबसे ज्यादा मरीज तो एचआईवी के शिकार होते हैं और एड्स इनकी मौत की बड़ी वजह बनता है।
खून से संक्रमण फैलने की एक बड़ी वजह खुद खून की कमी होना है। नेशनल ब्लड ट्रांसफ्यूजन काउंसिल के मुताबिक देश के हर जिले में एक ब्लड बैंक का होना अनिवार्य है। पिछले दिनों राज्यसभा में प्रश्नकाल के दौरान बताया गया कि असम, नागालैंड, बिहार, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर जैसे राज्यों के 63 जिलों में अभी भी ब्लड बैंक नहीं है।
विश्व में कहीं भी संक्रमित खून की जांच सौ फीसदी सुरक्षित नहीं है, बावजूद इसके बहुत से देश रक्तदान से लेकर उसकी जांच के तरीकों को बेहतर ढंग से अंजाम दे रहे हैं। संक्रमित खून के जरिए एचआईवी फैलने के मामले कनाडा 1985 में ही खत्म कर चुका है। यूएस में ऐसा केस 2008 में अंतिम बार सामने आया। यूके में खून के जरिए एचआईवी फैलने का आखिरी मामला 2005 में आया था।
खून में संक्रमण की जांच के लिए ‘नाट’ सबसे अधिक आधुनिक टेस्ट है। लेकिन देश के दो से तीन फीसदी ब्लड बैंकों में ही ब्लड टेस्ट के लिए ‘नाट’ उपलब्ध है और ये ब्लड बैंक कुल खून का सिर्फ सात फीसदी ही सटीक तरीके से जांच कर पाते हैं। इसकी कई वजहें हैं। मसलन, देश में अभी तक ‘नाट’ से ब्लड टेस्ट अनिवार्य नहीं है। दूसरे, यह टेस्ट बहुत महंगा है और संसाधनों की भी भारी किल्लत है।
कोई कह सकता है कि ‘नाट’ ही क्यों? दरअसल जब खून में वायरस का लोड बहुत कम होता है तो बहुत सी तकनीकों से यह महीनों तक डिटेक्ट नहीं हो पाता है। इसे विंडो पीरियड बोलते हैं। वहीं ‘नाट’ में विंडो पीरियड केवल सात दिन है। सेंट्रल ड्रग स्टैंडर्ड कंट्रोल आॅर्गनाइजेशन ने ब्लड टेस्ट के लिए ‘एलिसा’ तकनीक का इस्तेमाल अनिवार्य किया हुआ है। इसमें विंडो पीरियड दो सप्ताह से लेकर तीन सप्ताह तक होता है। विंडो पीरियड जितना कम रहता है, संक्रमित खून मरीजों तक पहुंचने का खतरा उतना ही कम हो जाता है।
हालांकि वर्ष 2010 से 2019 के बीच एचआईवी इन्फेक्शन के नए मामले 37 फीसदी कम हुए हैं। राजस्थान, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, बिहार के अलावा कुछ राज्यों ने सरकारी अस्पतालों में ब्लड टेस्ट के लिए ‘नाट’ जरूरी कर दिया है। देश में वर्ष 2019-20 में लाइसेंस युक्त ब्लड बैंकों की संख्या बढ़कर 3321 हो गई है। अब जरूरी है कि सरकारी एजेंसियां खून लेते समय मरीज की मेडिकल हिस्ट्री और खून की जांच के लिए बेहतरीन तकनीक का इस्तेमाल करने पर पूरा ध्यान दें।