कानून मंत्री मेघवाल का बड़ा बयान — “भारतीय संस्कृति में रची-बसी है संस्थागत मध्यस्थता (इंस्टीटूशनल आर्बिट्रेशन)

रानीगंज। शनिवार को आयोजित एक महत्वपूर्ण सम्मेलन के दौरान केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने कहा कि मध्यस्थता (आर्बिट्रेशन) भारत की सांस्कृतिक विरासत का अभिन्न अंग रही है। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि संस्थागत मध्यस्थता केवल एक कानूनी प्रक्रिया नहीं, बल्कि भारत की प्रशासनिक और सांस्कृतिक परंपरा का मूल आधार रही है। मेघवाल ने ONGC के अध्यक्ष अरुण कुमार सिंह के उस सुझाव का समर्थन किया जिसमें उन्होंने कहा कि मध्यस्थता प्रक्रिया समयबद्ध और प्रभावी होनी चाहिए। कानून मंत्री ने कहा कि संस्थानों को अपने हितों की रक्षा करते हुए राष्ट्रीय विकास में योगदान देना चाहिए, जिसमें लचीलापन और कठोरता के बीच संतुलन आवश्यक है। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि भारत में, जो कभी प्रशासनिक निर्णयों का केंद्र हुआ करती थी, उस मध्यस्थता की परंपरा समय के साथ कमजोर पड़ी, और इस दौरान अन्य देश इस क्षेत्र में अग्रणी बन गए। लेकिन उन्होंने विश्वास जताया कि भारत आने वाले समय में वैश्विक मध्यस्थता केंद्र (ग्लोबल आर्बिट्रेशन हब) बनकर उभरेगा। ONGC के अध्यक्ष अरुण कुमार सिंह ने कहा कि “अत्यधिक सतर्क अधिकारी, जरूरत से ज्यादा आशावादी विक्रेता और सख्त अनुबंध” अधिकतर मध्यस्थता विवादों का कारण बनते हैं। उन्होंने मध्यस्थता को “कम कानूनी और अधिक कॉर्पोरेट” बनाए जाने की आवश्यकता पर बल दिया। विधि सचिव अंजू राठी राणा ने बताया कि सरकार न्यायिक हस्तक्षेप को कम करने और संस्थागत मध्यस्थता को बढ़ावा देने के लिए कई पहल कर रही है। वहीं, इंडिया इंटरनेशनल आर्बिट्रेशन सेंटर के अध्यक्ष, सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता ने इस क्षेत्र में जनमानस में बदलाव और संरचित प्रणाली को अपनाने पर ज़ोर दिया। इसी संदर्भ में रानीगंज निवासी स्वप्निल मुखर्जी, जिनकी पुस्तक “बर्बरीक: ठ इलस्ट्रेटेड स्टोरी ऑफ़ खाटू श्याम” प्रकाशित हो चुकी है, और जो एमिटी विश्वविद्यालय, कोलकाता के पीएच.डी. (कानून) शोधार्थी तथा कलकत्ता उच्च न्यायालय के अधिवक्ता हैं, उन्होंने महाभारत का उदाहरण देते हुए बताया कि मध्यस्थता की भावना प्राचीन भारत में भी गहराई से मौजूद थी। उन्होंने खाटू श्याम (बरबरिक) की कथा का उल्लेख किया, जिन्होंने युद्ध में भाग न लेकर एक निष्पक्ष दृष्टा के रूप में समस्त युद्ध को देखा और अंत में कहा कि “जहां-जहां भी उन्होंने देखा, श्रीकृष्ण ही लड़ते नज़र आए — पांडवों और कौरवों दोनों ओर।” अतः उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि अंतिम विजय श्रीकृष्ण की ही हुई। स्वप्निल मुखर्जी ने कहा कि यह कथा इस बात का प्रतीक है कि निष्पक्षता, पर्यवेक्षण और संतुलित निर्णय भारतीय सभ्यता में सदियों से निहित हैं — यही संस्थागत मध्यस्थता (इंस्टीटूशनल आर्बिट्रेशन) की आत्मा है। यह सम्मेलन इस बात का प्रमाण है कि भारत एक बार फिर अपनी प्राचीन न्यायिक परंपराओं को आधुनिक ढांचे में पुनर्स्थापित करने की दिशा में अग्रसर है। लेखक: स्वप्निल मुखर्जी ने कहा – “जो नहीं है भारत में, था महाभारत में।”

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