विवेक गुप्त ने 11 लाख लोगों को पिलाया पानी : सीताराम अग्रवाल

शीर्षक पढ़ कर चौंकिये मत। जी हां। यह सत्य है। बहुत-बहुत बधाई हो विवेक गुप्त को, जो उन्होंने इस भीषण गर्मी में आम लोगों को थोड़ी राहत दी। 11 लाख लोगों को पानी पिलाने का यह कार्य अप्रैल (तारीख नहीं है) से 15 जून के बीच 75 दिनों में लगातार कोलकाता के विभिन्न स्थानों में किया गया। इस भीषण गर्मी में शुद्ध ठंडा जल पिलाने का यह महत् काम श्री काशी विश्वनाथ सेवा समिति के कार्यकर्ताओं द्वारा समिति के पदाधिकारियों की देखरेख में सम्पन्न हुआ। पर हुआ समिति के अध्यक्ष तथा विधायक विवेक गुप्त की सलाह पर। ये सारी बातें मैं अपने मन से नहीं कह रहा हूं, बल्कि यह समस्त जानकारी दैनिक सन्मार्ग के आज (14 जून) के अंक में पृष्ठ 6 पर छपी एक रपट में दी गयी है। रिपोर्ट के अनुसार रोजाना 16500 व्यक्तियों को जल पिलाया गया। यह भी सच है कि श्री गुप्त समिति के सर्वोच्च पद पर हैं, अतः उनकी सलाह (या यूं कहे आदेश ) के बिना यह संभव ही नहीं था।
यहाँ तक तो सब ठीक है। पर क्या करें रपट लिखनेवाले तथा स्थानीय संपादक का ( जिसकी देख-रेख में ये रपटें छपती हैं) जो जब-तब बड़ी-बड़ी गलतियाँ करते रहते हैं। इस रिपोर्ट में लिखा है 15 जून तक जल पिला दिया गया , जबकि आज जब यह रिपोर्ट छपी है, तब 14 तारीख ही है। अत: सारी गणना ही गलत हो गयी। अब पता नहीं क्यों, सन्मार्ग में जब कुछ गलत छपता है, तो लोग फोन कर मुझे क्यों पूछते है। यही नहीं, तरह-तरह के कमेन्ट भी करते हैं। किसी ने कहा- पहले लोग दान भी करते थे, तो चर्चा तक नहीं करते थे, अब तो पानी भी पिला रहें है तो मुफ्त में श्रेय लूट रहे हैं। दान दाता कोई, कार्य करनेवाले कोई और तथा डंका पीट रहे अपना। किसी न कहा जैसे रोजाना कितनों ने पानी पिया, वैसे ही उनके नाम और नम्बर भी नोट कर लेते, अगले चुनाव में काम देता। किसी ने कहा- जब इतना हिसाब किताब रखा है तो गिनीज बुक में भेज देते, शायद नाम आ जाता। खैर छोड़िये इन बातों को, कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।
मैं सिर्फ विवेक जी से इतना ही कहूंगा कि स्थानीय समाचारों पर विशेष ध्यान दीजिये, क्योंकि रोजाना छोटी- मोटी गलतियाँ तो अब आम बात हो गयी है, पर कभी-कभी इतना बलण्डर छपता है, जिससे सन्मार्ग की साख को धक्का लगता है। कुछ समय पहले ही एक समाचार में जिसकी पूण्य तिथि मनायी जा रही है, वही भाषण दे रहा है। मैंने जब सुरेन्द्र सिंह का ध्यान आकृष्ट किया तो उन्होंने इसे हल्के में लेकर टाल दिया। याद रखियेगा विवेक जी हिन्दी का पाठक जल्दी प्रतिक्रिया देता नहीं है, पर जब देता है तो अखबार की बोलती बंद कर देता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है वह अखबार, जिसकी कभी तूती बोलती थी और सन्मार्ग झोला में बिकता था। पर आज वह समाचारपत्र स्टाल पर भी नहीं दिखाई देता।


अंत मैं एक बात का उल्लेख करना चाहूंगा। गत 12 जून को श्रद्धेय स्व. रामअवतार गुप्त का जन्मदिन था। इस अवसर पर सन्मार्ग में पूरे एक पृष्ठ में उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए लिखा गया है- ” सन्मार्ग के यशस्वी संपादक (1942 – 2008 ) एवं हमारे प्रेरणा स्रोत स्व. श्री रामअवतार गुप्त जी की 99 वीं जयंती पर भावभीनी श्रद्धांजलि। “


उस दिन एक नामचीन संपादक का सबेरे- सबेरे फोन आया। आपने आज का सन्मार्ग देखा। मैने कहा- अभी तक नहीं। इसके बाद उन्होंने बताया कि कवर पेज मे श्री गुप्त के बारे में यशस्वी संपादक ( 1942- 2008) जो छपा है, उसमें 1942 क्या है। मैंने भी देखने के बाद माथापच्ची की, पर मेरी समझ में नहीं आया, क्योंकि 2008 मैं जानता था। 23 सितम्बर 2008 को वे स्वर्गवासी हुये थे। अब 1942 उनका जन्म वर्ष हो नहीं सकता था, क्योंकि नीचे 99वीं जयन्ती लिखी हुई थी। अब यदि उनके संपादक होने की बात की जाय तो 1942 में सन्मार्ग का ही जन्म नहीं हुआ था, तो इनके संपादक होने का सवाल ही पैदा नहीं होता।

जहां तक मेरी जानकारी है, सन्मार्ग कलकत्ता की स्थापना 1948 में हुई थी तथा करीब एक वर्ष बाद श्री गुप्त बनारस सन्मार्ग से आये थे। स्वयं श्री गुप्त ने अपनी आत्मकथा में लिखा हे। नीचे उस किताब का एक अंश दिया हुआ है। सत्तर के दशक की शुरुआत में जब मै सन्मार्ग से जुड़ा तब ये मैनेजर हुआ करते थे। बाद में मालिक होने पर संपादक बने। अत: 1942 की गुत्थी नहीं सुलझी। दिन में कई फोन आये। सायंकाल फिर एक विशिष्ट व्यक्ति का फोन आया। वे पत्रकारिता से जुड़े होने के अलावा विभिन्न सामाजिक संगठनों से भी जुड़े हैं। उनके अनुसार जब वे संसद कवर करते थे, तो उस समय विवेक गुप्त के राज्यसभा सदस्य होने के कारण उनसे अक्सर मुलाकात हो जाती थी। इन सज्जन ने भी वही सवाल किया। मैंने दिन की बात बताते हए उन्हें सीधे विवेक जी से पूछने की सलाह दी, पर उन्होंने असमर्थता जतायी। सबेरे पहला फोन करनेवाले माननीय संपादक जी से भी मैंने विवेक जी को फोन करने का सुझाव दिया। पर उन्होंने साफ कहा- मैं नहीं करूंगा। मैं समझ गया सब मेरे क॓धे पर ही बन्दूक रख कर चलाना चाहते हृं। अन्तोतगत्वा किसी के कहने पर नहीं अपनी जिज्ञासावश मैंने उसी दिन यानि 12 जून को ही रात मे करीब 9.30 पर विवेक जी को फोन किया। किसी भद्र महिला ने उत्तर दिया- सर ट्रेवलिंग कर रहे हैं। अतीत की तरह मैंने उन्हें संक्षेप में फोन करने का कारण बता कर विवेक जी से बात कराने का आग्रह किया। महिला ने बाद में बात कराने का आश्वासन देकर फोन रख दिया। वैसे फोन रखने के पहले मैंने यह तसल्ली कर ली कि वो मेरे बारे में जानती हैं या नहीं। उनका उत्तर था- हां सर, आपका नम्बर सेव है। पर यह लिखे जाने तक करीब 48 घंटे होने को आये, पर अभी तक विवेक जी की ओर से ना कोई फोन आया और ना ही 1942 के बारे में सन्मार्ग में कोई स्पस्टीकरण दिखायी दिया। चलिये कोई बात नहीं। हरि अनंत हरि कथा अनन्ता।
14 जून 2024

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