क्रांति कुमार पाठक
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आर्थिक विकास की नीतियां तब अपने लक्ष्य से भटक जाती हैं जब उनमें राजनीतिक सोच और उसके फायदे हावी हो जाते हैं। अंततः गरीब तबके का व्यक्ति इससे विकास की मुख्य धारा से छिटक जाता है और धीरे धीरे आर्थिक स्थितियां विपरीत होने लगती हैं। पिछले कुछ वर्षो से आर्थिक विकास के मोर्चे पर एक नई राजनीतिक सोच पैदा हुई है। अब लोकलुभावन विकास को जन कल्याणकारी योजनाओं द्वारा हर सत्तापक्ष भुनाना चाहता है, जिसका वास्तविक आधार कुछ वस्तुओं और सेवाओं को ‘मुफ्त बांटना’ हो गया है। मुफ्त बांटने की यह राजनीतिक सोच आर्थिक बदहाली को आमंत्रण दे रही है। यही वजह है कि बीते दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुफ्त की रेवड़ी बांटने की राजनीति पर चिंता जताते हुए देश के युवाओं को सचेत किया है। उन्होंने ऐसी राजनीति करने वालों पर तंज कसते हुए कहा कि देश में मुफ्त की रेवड़ी बांटकर वोट बटोरने का कल्चर लाने की कोशिश हो रही है, जो कि देश के विकास के लिए बहुत ही घातक है। इससे देश के लोगों खासकर युवा वर्ग को बहुत सावधान रहना होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि हम कोई भी फैसला लें, निर्णय लें, नीति बनाएं, इसके पीछे सबसे बड़ी सोच यह होनी चाहिए कि इससे देश का विकास और तेज होगा।
यह भी सच्चाई है कि हमारा लोकतंत्र जन कल्याण उन्मुखी है। उसका उद्देश्य समाज का आर्थिक विकास करना तथा उसका अधिकतम फायदा गरीब तबके को उपलब्ध करवाना है। इसलिए मुफ्त बांटने की सोच इस संदर्भ में जायज भी दिखती है। वस्तुओं और सेवाओं को कम मूल्य या रियायती दरों पर उपलब्ध करवाना समाज के हित में है। सब्सिडी देना भी उचित है, क्योंकि बहुत सारे ऐसे क्षेत्र हैं, जिनको सरकारी सहायता की सदैव आवश्यकता रहती है। इनमें कृषि क्षेत्र प्रमुख है। उसी तरह दलितों का विकास भी मुख्य है। वहीं दूसरी तरफ जब आर्थिक विश्लेषण के पक्ष पर यह देखने को मिलता है कि सभी सत्तापक्ष अपने भविष्य को और मजबूत रखने के लिए अपने लोकलुभावन वादों को अमली जामा पहनाने की कोशिश वित्तीय कर्जों के माध्यम से कर रहे हैं। और तो और, कई महत्वपूर्ण योजनाओं जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, बुनियादी ढांचा तथा सेवाओं के विकास में कमी करके बचाई गई रकम को मुफ्त योजनाओं में लगा देते हैं इस कारण ये मुफ्त की रेवड़ी बांटने की योजनाएं पूर्णतः अनुचित प्रतीत होती है।
यह चिंता आरबीआई द्वारा प्रस्तुत एक रिपोर्ट में भी जाहिर होता है। वर्तमान परिदृश्य में दस राज्यों की आर्थिक स्थिति डांवाडोल है, क्योंकि उनका वित्तीय कर्ज और राज्य के जीडीपी का अनुपात के मुकाबले बहुत अधिक बढ़ रहा है। इन सबमें ज्यादा पंजाब की स्थिति विकट है। अन्य राज्यों में बिहार, झारखंड, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, केरल, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और हरियाणा हैं। इन राज्यों में कर्ज पर ब्याज का भुगतान राजस्व का दस प्रतिशत से अधिक रहा है। पंजाब इन दिनों मुफ्त में दी जाने वाली सुविधाओं (बिजली, पानी आदि) के कारण बहुत चर्चा में है। आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2022-23 में मुफ्त में दी जाने वाली विभिन्न प्रकार की सुविधाएं, राज्य के जीडीपी का 25.6 फीसदी अनुमानित हैं, तो वहीं यह वित्तीय आय का 17.8 फीसदी है तथा कर संग्रहण का 45.5 फीसदी अनुमानित है। यह आंकड़ा आर्थिक विकास के मोर्चे पर चिंता और घबराहट का सूचक है।
यह लोकलुभावन कदम इसलिए गलत हैं, क्योंकि इससे आर्थिक नीतियां बुरी तरह प्रभावित होती हैं। इसके विपरीत आज जरूरत है कि सभी राज्य अपने यहां डिजीटल तकनीक और सामाजिक सुविधाओं के बुनियादी ढांचे को तेजी से विकसित करें और आर्थिक नीतियों को रोजगारोन्मुख बनाने को सर्वोपरि रखें। मुफ्त बांटने की इन योजनाओं के चलते राज्यों के पूंजीगत खर्च लगातार कम होते जा रहे हैं, जिसके कारण नई संपदा का विकास नहीं हो रहा और आय नहीं बढ़ रही है। यह सोच भविष्य के लिए बहुत बड़ा आर्थिक संकट का द्वार है।
कुछ राज्यों का राजकोषीय घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है। मतलब स्पष्ट है कि राज्यों की कमाई और खर्च के बीच में अंतर लगातार गहरा रहा है। आरबीआई की रिपोर्ट के मुताबिक आंध्र प्रदेश, बिहार, राजस्थान और पंजाब में राजकोषीय घाटा वर्ष 2020-21 में पंद्रहवें वित्त आयोग द्वारा निश्चित किए गए स्तर से ऊपर था। दूसरी तरफ इन राज्यों के स्वयं के कर संग्रहण में भी लगातार कमी हो रही है, जो कि चिंताजनक है। आरबीआई की रिपोर्ट के आंकड़ों के मुताबिक इन दस राज्यों के अंतर्गत बिहार की हालत बहुत चिंताजनक है, क्योंकि इसका खुद का कर संग्रहण पिछले पांच सालों में कुल कर संग्रह का मात्र 23.5 फीसदी है, जबकि केंद्र पर इसकी निर्भरता करीब 75 फीसदी है। इस बीच अठारह वर्ष बाद पुरानी पेंशन योजना को वापस लाना भी भविष्य के सफल आर्थिक नियोजन पर एक प्रश्न है। फिर श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था के पतन की हालिया खबरों ने राज्य की भूमिका पर एक नई बहस को जन्म दिया है। श्रीलंका की सरकार ने भी करों में कटौती की और कई मुफ्त सामान और सेवाएं प्रदान की। नजीतन, अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गई और सरकार गिर गई।
भारत में राजनीतिक दलों द्वारा जनता को मुफ्त सुविधाएं देने का कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है। दूरगामी आर्थिक विकास की सोच भीये इस पक्ष में नहीं है। कई राज्यों में अब तो यह भी देखने को मिल रहा है कि कर संग्रह बढ़ाने के चक्कर में शराब की बिक्री पर अधिक जोर दिया जा रहा है, क्योंकि आय बढ़ाने के अन्य स्त्रोत वर्तमान में उनके पास नहीं है। जिसका जीता जागता उदाहरण दिल्ली है। लोकलुभावन आर्थिक विकास की इस सोच ने क्या समाज को विनाशकारी राह पर नहीं मोड़ दिया है।
पड़ोसी देश श्रीलंका आज बर्बादी की कगार पर पहुंचा है तो इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि उसने खर्चों पर लगाम नहीं लगाई और जनता को मुफ्त की रेवड़ी बांटना बंद नहीं किया। मुफ्त की रेवड़ी बांटने से श्रीलंका की तत्कालीन सरकार लोकप्रिय तो हो गई, लेकिन जब यह रेवड़ियां खत्म हो गई और बांटने के लिए जीरा भी नहीं बचा तो वही जनता ने उस सरकार की बैंड बाजा दी, जिसके जिंदाबाद के नारे वह कुछ समय पहले तक लगाते थे। भारत की अर्थव्यवस्था आज वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान रखती है, परंतु राज्यों की बिगड़ती आर्थिक स्थिति विदेशी निवेशकों के लिए एक घबराहट का सूचक बनती जा रही है। इसे तुरंत रोकना होगा, वरना इस संकट के प्रभाव देश की आर्थिक स्थिति पर भी शीघ्र दिखने लगेगा।