क्रांति कुमार पाठक
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सालों पहले उच्चतम न्यायालय ने खुले छोड़े जा रहे बोरवेल में बच्चों के गिरने की रोकथाम के लिए राज्यों को व्यापक निर्देश देते हुए कहा था कि बोरवेल ट्युबवेल और बेकार व जीर्ण-शीर्ण कुओं को ढंकने की व्यवस्था की जाए, इसके लिए बोरवेल खोदने वाली एजेंसियों को जवाबदेह बनाया जाए। परंतु 25 वर्ष पहले दिए गए इस निर्देश का पालन नहीं किया जा रहा है। तभी तो ऐसे समय में जब देश-दुनिया नये साल के जश्न में डूबी हुई थी, मध्यप्रदेश व राजस्थान में खुले बोरवेल में गिरने से हुई दो बच्चों की मौत विचलित कर गई।
दरअसल, राजस्थान के दोसा जिले और मध्यप्रदेश के गुना की घटनाएं पहली बार नहीं हुई हैं। गाहे-बगाहे ऐसी खबरें पूरे देश से आती हैं। यह सोचकर ही मन सिहर उठता है कि कोई बच्चा कैसे एक अंधी सुरंग में भूखे-प्यासे, अपर्याप्त ऑक्सीजन व बिना हिले-डुले कुछ दिन मौत की प्रतीक्षा करता होगा। भय व घुप्प अंधेरे में बच्चा किन मानसिक व शारीरिक यातनाओं से गुजरता होगा, सोचकर भी डर लगता है। लेकिन फिर भी हमारा संवेदनहीन समाज व लापरवाह तंत्र इस त्रासदी को गंभीरता से नहीं लेता। जिस बोरवेल को खुदवाने में लाखों रुपये खर्च होते हैं, उसका मुंह बंद करने के लिये चंद रुपये खर्च करने में लोग आपराधिक लापरवाही दिखा दोते हैं।
मध्यप्रदेश के गुना जिले के एक गांव में नौ वर्षीया बच्चे की खुले बोरवेल में गिर कर असमय मृत्यु होने की घटना हुई। उसे निकालने के लिए सारे प्रयास करने के बाद भी उसे बचाया नहीं जा सका। इसी तरह राजस्थान के कोटपुतली में बोरवेल में गिरी तीन साल की बच्ची को एक सप्ताह बाद भी न निकाला जाना तंत्र की विफलता को दर्शाता है। निस्संदेह, यह अभियान जटिल बताया जाता है और बारिश ने राहत कार्य में बाधा डाली, लेकिन शुरुआत में प्रशासन की शिथिलता पर सवाल उठे हैं। ऐसे अभियानों में राष्ट्रीय आपदा निरोधक बल तथा स्थानीय सुरक्षा बलों की नाकामी गाहे-बगाहे उजागर होती रहती है। निस्संदेह, ऐसे संकटों में तत्काल कार्रवाई और राहत- बचाव कार्य को आधुनिक तकनीक से शुरू करने की जरूरत महसूस की जाती रही है।
यही वजह है कि आए दिन होने वाले बोरवेल हादसों के मद्देनजर देश की शीर्ष अदालत ने वर्ष 2010 में इस बाबत दिशानिर्देश जारी किए थे, ताकि ऐसे हादसों को टाला जा सके। जिसमें बोरवेल के चारों ओर बाड़ लगाने तथा मजबूत बोल्ट के साथ स्टील कवर लगाने के निर्देश दिए गए थे। इसके बावजूद आए दिन बोरवेल में बच्चों के गिरने के मामले सामने आ रहे हैं। बीते दो सालों में आठ बच्चों की मौत होने के बाद भी प्रशासन इस मामले में निष्क्रिय है। कोई सख्त नियम-कानून नहीं बन पा रहा है, एक घटना में प्रशासन का पूरा अमला और मशीनरी का उपयोग युद्धस्तर पर किया जाता है, जिसमें लाखों रुपए खर्च हो जाते हैं। जाहिर किसान व स्थानीय प्रशासन सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अनदेखी कर रहे हैं। अन्यथा ऐसे हादसों की पुनरावृत्ति न होती।
निस्संदेह, देश के विभिन्न भागों में बोरवेल हादसों का सामने आना जहां निगरानी करने वाले विभागों की लापरवाही को दर्शाता है, वहीं उन लोगों के आपराधिक कृत्य को भी दर्शाता है, जो बोरवेल का मुंह खुला छोड़ देते हैं। वहीं हादसे हमारे समाज में चेतना के अभाव को भी दर्शाते हैं कि खुले बोरवेल के खिलाफ आम लोगों के स्तर पर आवाज नहीं उठायी जाती। यह भी उल्लेखनीय है कि सिंचाई विभाग राज्यों का विषय होने के कारण इसमें केंद्र सरकार का दखल नहीं हो पाता। एक अनुमान के अनुसार देश में करीब पौने तीन करोड़ बोरवेल हैं। जिसमें से बड़ी संख्या में सूख चुके हैं। जिन्हें गैर जिम्मेदार लोगों द्वारा खुला छोड़ दिया जाता है, जो कालांतर हादसे की वजह बन जाते हैं।
विडंबना यह भी है कि एनडीआरएफ द्वारा चलाये जाने वाले ऐसे राहत व बचाव के दो तिहाई अभियान नाकाम रहते हैं। दरअसल, सभी राज्यों में ऐसे मामलों में बच्चों की जान बचाने से जुड़े सुरक्षा उपाय हर जिले के अधिकारियों को एक मैनुअल के रूप में दिए जाने चाहिए। ताकि किसी हादसे के बाद राहत-बचाव कार्य तुरंत शुरू करके बच्चों को बचाया जा सके। संकट इस ओर भी इशारा करता है कि ऐसे मामलों में हमारा राहत व बचाव का तंत्र कितना शिथिल व निष्प्रभावी है। अकसर स्थिति जटिल होने पर सेना के विशेषज्ञों की भी मदद ली जाती है। कई बार इतनी देर बाद सेना के विशेषज्ञों को बुलाया जाता है कि बच्चों के बचने की उम्मीद क्षीण हो चुकी होती है।
निश्चित रूप से बोरवेल की देखरेख करने वाली एजेंसियों के अधिकारियों की जवाबदेही तय करने का वक्त आ गया है। ऐसे मामलों में लापरवाही दिखाने वाले अधिकारियों को दंडित करने की जरूरत है। उनका दायित्व बनता है कि खुले बोरवेल के मालिकों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई करें। समाज के लोगों को भी इस बाबत सचेत करने की जरूरत है ताकि वे प्रशासन को खुले बोरवेल की सूचना दे सकें। यदि समाज सचेत और संवेदनशील रहेगा तो उसका दबाव प्रशासन भी महसूस करेगा। यदि सख्ती से नियम-कायदे लागू कराए जाएं तो इस तरह की घटनाओं पर निश्चित ही काबू पाया जा सकता है। इससे कई बच्चों की अनमोल जिंदगी बचायी जा सकेंगी।
क्रांति कुमार पाठक
उपसंपादक दैनिक एक संदेश