
कोलकाता महानगर में रावण दहन का एक ‘ भव्य ‘ कार्यक्रम हो गया। आप पूछेंगे कि किसी को जलाने का कार्य भव्य कैसे हो सकता है। जी, आप सही हैं। ऐसा होना नहीं चाहिये, पर ऐसा हुआ और पिछले कई वर्षों से हो रहा हैं। असत्य पर सत्य की विजय, अन्याय पर न्याय, अधर्म पर धर्म व अनाचार पर सदाचार की जीत जैसे पवित्र उद्देश्यों को लेकर रामायण की इस प्राचीन गाथा को आजकल के चंद धनाढ्य लोगों ने तोड़ मरोड़ कर अपनी मनमर्जी के लायक बनाकर इसे नौटंकी उत्सव बना दिया है। जो रावण प्रकांड विद्वान, अत्यंत बलशाली, परम शिवभक्त, ब्राह्मण कुल में जन्मा सर्वशक्तिमान राजा था, उसका अंत एक वनवासी राम ने कर दिया। इसका सबसे बड़ा कारण था रावण का अहंकार । इसीलिए जब माता कौशल्या ने राम से पूछा- तुमने इतने बलशाली रावण को कैसे मारा। राम ने बड़ी मासूमियत से उत्तर दिया- मां मैने रावण को नहीं मारा। उसे तो ” मैं ” ने मारा। पाठकों यही मैं अर्थात अहंकार, घंमड ही रावण तथा उसके परिवार के विनाश का कारण बना। अब कैसी विडम्बना है कि इतना बड़ा संदेश देने वाली घटना को आजकल रावण के अहंकार को जलाने की बजाय चंद लोग इसे भव्य रंगारंग उत्सव का रूप देकर अपने बलशाली, धनवान व प्रभावशाली होने के अंहकार को तुष्ट करते हैं। समाचारपत्रों, टीवी चैनलों व सोशल मीडिया में अपना प्रचार-प्रसार करते हैं।
मैं आयोजकों से एक सीधा सवाल पूछना चाहता हूं। पूछने से पहले कुछ तथ्यों पर प्रकाश डालता हूं। वाल्मीकि रामायण के अनुसार राम- रावण की सेनाओं के बीच 84 दिनों तक युद्ध हुआ। युद्ध के दौरान भगवान श्री राम ने सफलता के लिए शक्ति की आराधना की। इसके बाद 9 दिनों तक युद्ध चला तथा दसवें दिन रावण मारा गया, जिसे हम दशहरा के रूप में मनाते हैं। रावण का अंत करने के 20 दिन बाद भगवान राम अयोध्या लौटे थे। 14 वर्षों का बनवास काटकर राम लौटे थे और इसी खुशी में अयोध्या वासियों ने दीप जलाकर उनका स्वागत किया था। इसे ही हम दीपावली त्यौहार के रूप में मनाते हैं। रावण के और 3 भाई थे- कुम्भकर्ण, खरदूषण व अहिरावण। तीनों अत्यन्त बलशाली थे, पर अहिरावण की वीर हनुमान के आगे एक न चली और वह इनके हाथों मारा गया। बाकी तीनों का वध श्री राम ने किया। रावण के साथ शूरवीर पुत्र थे- मेघनाद, प्रहस्त, अतिकाय, नरान्तक, देवान्तक,अक्षय कुमार व त्रिशिरा। प्रथम 3 का वध लक्ष्मण ने तथा बाद वाले तीन का वध हनुमान ने किया। सिर्फ त्रिशिरा भगवान राम के हाथों मारा गया। कहने का तात्पर्य यह है कि रावण व उसके परिवार के पास जितनी शक्ति थी, किसी को भी उसे हराना अत्यंत कठिन था। अपने आप को सर्वशक्तिमान समझने का अंहकार उसके विनाश का कारण बना। पर यह संदेश इन आयोजकों के गले क्यों नहीं उतरता कि वे ऐसा कोई काम न करें, जिससे घमंड की बू आती हो। नहीं तो किसी दिन कोई ‘कलियुगि राम ‘ इनके अंहकार को तार तार कर देगा।
अब वापस सवाल पर। मैं आयोजकों से पूछना चाहता हूं ( वैसे यह जिज्ञासा बहुत लोगों की है ) कि आपलोग जिस रावण का दहन करते हो, वह जीवित अवस्था वाला है या मृत। अर्थात जब श्री राम ने तीर चला कर रावण को मारा तो वह तत्काल नहीं मरा, क्योंकि भूमि पर धराशायी रावण से ज्ञान लेने के लिए श्री राम ने लक्ष्मण को भेजा था। यदि मृत शरीर का दहन करते हो तो किस संस्कृति में मुर्दे को खड़ा करके जलाने की प्रथा है। इसके अलावा मुर्दा को जलाया तो श्मशान में जाता है, जहां शांति का पालन किया जाता है। पर आप लोग तो सज- धजकर ऐसे शामिल होते हो, मानों किसी बरात में आये हो। मंच बनता है, माइक लगता है। मंच संचालन कर्ता भले ही कितना योग्य हो, पर उसे बाध्य होकर भांड़गिरी करनी होती है। इन प्रशंसा पिपासु धन्नासेठों के लिए बीच बीच में तालियां बजवानी पड़ती है। जब तीर से दहन किया जा रहा है, तो यह मानना पड़ेगा कि आप जिन्दा रावण का दहन कर रहे हो। अब सरेआम किसी को जिन्दा जलाने का आप सार्वजनिक प्रदर्शन करते हो, यह किस संस्कृति का परिचायक है। माना कि सब कुछ प्रतीकात्मक है, पर है तो हमारे एक प्राचीन ग्रंथ की अमर गाथा। इसे किस आधार पर परिकल्पित किया गया है या कहां से प्रेरणा ली गयी है, इस पर यदि आयोजक प्रकाश डाले तो जनता को तसल्ली होगी। अन्यथा चारों ओर जो कानाफूसी हो रही है कि यह सब कुछ लोगों ने अपने प्रभाव से पैसे के बल पर समाज में नाम कमाने, अपने को प्रतिष्ठित करने का घिनौना खेल है, जो आप लोग एक अत्यंत लोकप्रिय धार्मिक, सामाजिक घटना की आड़ में खेल रहे हो, तो समाज आपको माफ नहीं करेगा। सबूत के तौर पर लोग कुछ बातें कहते हैं। इस आयोजन के लिए कार्ड छपवाये जाते हैं। कहने को तो यह नि:शुल्क है। पर यह आम आदमी को नहीं मिलता। विज्ञापनों में डायमंड स्पांसर, गोल्ड स्पांसर जैसे शब्द होते हैं। उनके लिए कार्ड भी वीआइपी होते हैं और उनके बैठने की व्यवस्था भी वैसी ही होती है। बकायदा स्वागत समिति, संयोजक समिति वगैरह बनती हैं, जिसमें काफी नाम छपते है। चारों ओर कम्पनियों के बैनर होते हैं। खान- पान की व्यवस्था होती है। चकाचौंध देख यदि भूले से कोई आदमी अन्दर जाने की कोशिश करता है, तो कार्ड न होने के कारण आयोजकों के बाउंसर उसे धकिया कर बाहर का रास्ता दिखा देते हैं। जिनके नाम रावण दहन करने के लिए विज्ञापन में छपे हैं, क्या उनमें राम का कोई भी गुण है। एक व्यक्ति पर तो फब्ती कसते हुए लोगों ने कहा कि वे तो अतीत में इतनी बड़ी घटना में लिप्त थे कि प.बंग सरकार का पूरा प्रशासन हिल गया था।
यह सब लिखने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि इस तरह के आयोजन नहीं होने चाहिए, बल्कि और जोर- शोर से होने चाहिये, पर मर्यादित रूप में। आयोजकों की नियत साफ होनी चाहिये। जहां तक संभव हो, जन भागीदारी ज्यादातर होनी वाहिये।समाज में स्पष्ट संदेश जाना चाहिए। व्यक्ति परक नहीं, समाज परक उद्देश्य होना चाहिये, तभी ऐसे आयोजन सार्थक होंगे। तब जाकर सचमुच रावण-दहन होगा।

वरिष्ठ पत्रकार सीताराम अग्रवाल
( लेखक प.बंगाल सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त पत्रकार हैं)
13 अक्तूबर 2024
