जंगल के अंधियारे में दफन वनवासियों के जीवन में शिक्षा का उजियारा फैला रहा एफटीएस

बौद्धिक सफलता के शिखर की ओर कदम बढ़ा रहे हैं आदिवासी युवायुवा

कोलकाता, 17 नवंबर (हि.स.)। सदियों से अपने बौद्धिक ज्ञान और अदम्य साहस के बल पर बाकी दुनिया के साथ तकनीक का हाथ पकड़कर मंगल ग्रह तक का सफर कर चुके भारत की सामाजिक व्यवस्था कई मायने में असमानता से भरी हुई है। विज्ञान से लेकर अंतरिक्ष तक और सामरिक महत्व से लेकर सांस्कृतिक और सामाजिक मोर्चे पर भारत और भारतीयता पूरी दुनिया में सफलता के सर्वोच्च मुकाम पर पहुंच चुके हैं, लेकिन हमारे ही बीच ग्रामीण क्षेत्रों के जंगली इलाकों में रहने वाले आदिवासी आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य, आधुनिकता जैसे मूलभूत जरूरतों से वंचित हैं। 21वीं सदी में भी बंगाल, बिहार, ओडिशा, झारखंड, महाराष्ट्र, तमिलनाडु जैसे राज्यों में रहने वाले इस समुदाय के लाखों बच्चों का जीवन जंगल के अंधकार में शुरू होकर उसी में दफन हो जाता था। लेकिन अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वनवासी कल्याण आश्रम से संबंधित अनुषांगिक संगठन फ्रेंड्स आफ ट्राईबल सोसायटी (एफटीएस) ने सदियों से वंचित इन आदिवासियों के शैक्षणिक, सामाजिक व आर्थिक सफलता की नई इबारत लिखी है। अब इन आदिवासियों के बच्चे जंगलों में जन्म लेकर वही दफन नहीं होते बल्कि सभ्य समाज के बीच अपनी प्रतिभा को साबित करते हुए सफलता की नई कहानियां लिख रहे हैं। हालांकि इस उपलब्धि की स्क्रिप्ट आज से 32 साल पहले 1989 में ही लिखी जाने लगी थी। एफटीएस की बंगाल इकाई के प्रमुक निर्माल्य भट्टाचार्य ने बताया कि आदिवासी समाज के बच्चों की शिक्षा और कौशल विकास के लिए 15 जनवरी 1989 को एफटीएस की स्थापना की गई थी। संघ के वरिष्ठ नेताओं को आदिवासियों के बीच काम करने का बहुत अच्छा अनुभव था। इसकी वजह थी कि बड़े पैमाने पर ईसाई मिशनरीज इन्हें धन, चिकित्सा आदि का लालच देकर अपने इसाई कुनबे में में शामिल करने में जुटी हुई थीं। भविष्य में इसके खतरे को देखते हुए संघ के नेताओं ने आदिवासियों के समग्र विकास कर मुख्य धारा से जोड़ने के लिए योजनाएं बनाई और फ्रेंड्स ऑफ ट्राइबल सोसाइटी की स्थापना की गई। उस समय आदिवासी समुदाय जो कुछ भी खेती-बाड़ी करते थे अथवा कारीगरी कर अगर कुछ बनाते थे तो उन्हें बहुत कम कीमत में खरीदा जाता था। चुकी इस समुदाय के लोग पढ़े-लिखे नहीं थे इसलिए इस साजिश को समझ नहीं पाते थे।
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वनवासियों के लिए शिक्षा का मंदिर है एकल विद्यालय
– भट्टाचार्य ने बताया कि आदिवासी समाज के विकास को ध्यान में रखते हुए “एकल विद्यालय” की स्थापना की गई। इस विद्यालय का स्वरूप ऐसा रखा गया कि एक गांव के लिए एक विद्यालय खोले गए और उसमें एक आचार्य यानी शिक्षक रखे गए। पढ़े लिखे और शिक्षित लोग शहर चले जाते थे। इसीलिए अगर बड़े स्कूल खोलकर उसमें आवश्यक संख्या में शिक्षकों की नियुक्ति के बारे में सोचा जाता तो शिक्षक ही नहीं मिलते। इसीलिए एक गांव में एक विद्यालय और एक शिक्षक की योजना पर काम शुरू किया गया और शुरुआत में पूरे देश में ऐसे 60 एकल विद्यालय शुरू किए गए। आज 32 सालों बाद पूरे देश में ऐसे विद्यालयों की संख्या 49 हजार 983 है। इनमें से अकेले पश्चिम बंगाल में तीन हजार 549 एकल विद्यालय हैं। इन विद्यालयों में पढ़ने वाले आदिवासी और ग्रामीण समुदाय के बच्चों को राष्ट्रवाद समर्पित चरित्र निर्माण के साथ हर तरह की अत्याधुनिक शिक्षा दी जाती है।
निर्माल्य भट्टाचार्य ने बताया कि इन स्कूलों से पढ़ कर निकले बच्चे आज न केवल भारत और देश के दूसरे राज्यों में बल्कि विदेशों में भी सफलता का परचम लहरा चुके हैं।
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संगठन के पदाधिकारियों को नहीं मिलती कोई राशि
– निर्माल्य भट्टाचार्य ने बताया कि एफटीएस पूरी तरह से निस्वार्थ संगठन है। इससे जुड़ने वाले लोग किसी भी तरह का कोई वित्तीय लाभ नहीं लेते। इसकी वजह है कि इसके पदाधिकारियों, कार्यकर्ताओं को संगठन की ओर से कोई मेहनताना अथवा वेतन नहीं दिया जाता। यह मूल रूप से दान पर चलता है और खास बात यह भी है कि दान ले आने वालों को भी किसी तरह का कोई कमीशन नहीं दिया जाता। इसके अलावा राज्य व केंद्र सरकारों से भी वित्तीय मदद नहीं ली जाती। इसीलिए यह संगठन बेहद खास है और समर्पित होकर आदिवासी समुदाय के चतुर्मुखी विकास के लिए खामोशी से पिछले तीन दशक से काम कर रहा है। उन्होंने बताया कि शहरी क्षेत्रों में हमारे स्कूल नहीं होते क्योंकि मूल रूप से ग्रामीण और वंचित आबादी को शिक्षा दीक्षा दिलाना मकसद है।
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धर्म परिवर्तन कराने वाले ईसाई मिशनरीज की साजिश पर लगी लगाम
– एफटीएस के संबंध में जानकारी रखने वाले एक विशेषज्ञ ने नाम उजागर नहीं करने की शर्त पर बताया कि आजादी के बाद पूरे देश की अशिक्षित आबादी, दलित समुदाय और आदिवासियों को ईसाई बनाने की मुहिम मिशनरीज ने शुरू की थी। इसके लिए न केवल भारत बल्कि दूसरे देशों से बड़ी धनराशि भारत में चलने वाली मिशनरीज के पास भेजी जाती थी। इस धन का उपयोग दलित, वंचित, शोषित, अनपढ़ और जंगली क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी समुदाय में बांटकर उन्हें ईसाइयत की ओर मोड़ने के लिए किया जाता था। उन्हें कभी चमत्कारी इलाज के नाम पर बरगला कर ईसाई बना लिया जाता था तो कभी बेहतर भोजन और सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा बनाने का लालच देकर रुपये के बल पर इसाई बनाया जाता था। जब भारत आजाद हुआ था तब यहां बड़े पैमाने पर गरीबी थी और इन ईसाइ मिशनरियों के धन प्रवाह को चुनौती देना मुश्किल लग रहा था। लेकिन आखिरकार आजादी के करीब तीन दशक बाद देश के बड़े औद्योगिक घरानों से जुड़े मारवाड़ी समुदाय ने मिशनरीज के इस बेलगाम दुराचार पर रोक लगाने का बीड़ा उठाया और एफटीएस की स्थापना की गई। उक्त व्यक्ति ने बताया कि इस समुदाय के लोगों ने इतने बड़े पैमाने पर धन दान के रूप में दिए कि मिशनरीज को घुटने टेकने पड़े। आज स्थिति ऐसी है कि जहां-जहां ईसाई मिशनरीज धर्म परिवर्तन के लिए काम करती थीं वहां आज एकल विद्यालय स्थापित हो चुके हैं और खासकर आदिवासी समुदाय के बीच अब धर्म परिवर्तन नाम मात्र के रह गए हैं। उन्होंने बताया कि ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोग बहुत अधिक लालची नहीं होते और अपनी मिट्टी, राष्ट्र तथा अराध्य के प्रति समर्पित होते हैं। संघ और अनुषांगिक संगठनों ने इन आदिवासियों को इसी रूप में स्वीकार किया और इन्हें इनके मूल स्वरूप में रखते हुए विकास का बीड़ा उठाया है जिसका सकारात्मक परिणाम देखने को मिल रहा है।

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