क्रांति कुमार पाठक
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हाल ही में हैदराबाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह परिवारवाद की राजनीति पर करारा प्रहार करते हुए इसे लोकतंत्र के लिए खतरा बताया, उससे साफ लगता है कि वह इसे भाजपा का प्रमुख एजेंडा बनाने के लिए कमर कस चुके हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि वह केवल परिवारवाद की राजनीति पर लगातार निशाना ही नहीं साध रहे हैं, बल्कि यह भी सुनिश्चित कर रहे हैं कि भाजपा में इस तरह की राजनीति पर विराम लगे। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि विगत 15 मार्च को हुई भाजपा संसदीय दल की बैठक में उन्होंने साफ तौर पर कहा था कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा नेताओं की जो संतानें चुनाव मैदान में नहीं उतर सकीं, उसके लिए वह खुद जिम्मेदार हैं। उन्होंने कहा था कि भारतीय राजनीति को परिवारवाद खोखला कर रहा है और हमें इससे निपटना ही होगा।
निस्संदेह यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि परिवारवाद की राजनीति का विरोध करने के पहले भाजपा खुद अपने यहां इस प्रकार की राजनीति को रोके। वैसे तो लोकतंत्र में परिवारवाद का कोई आधार नहीं होना चाहिए, लेकिन आज शायद ही कोई पार्टी हो, जहां परिवारवाद नहीं है। परिवारवाद की राजनीति के दो पहलू हैं। एक तो यह कि राजनीतिक दलों का नेतृत्व परिवार विशेष के पास ही रहता है और दूसरा यह कि विभिन्न दलों के वरिष्ठ नेता अपने बेटे -बेटियों अथवा भाई-भतीजों को राजनीति में आगे बढ़ाते रहते हैं। स्पष्ट है कि कांग्रेस, राजद, सपा, डीएमके, शिवसेना व तृणमूल कांग्रेस सरीखे जिन दलों का नेतृत्व परिवारवाद विशेष के पास ही रहता है, वे लोकतंत्र को अधिक नुकसान पहुंचा रहे हैं। ऐसे दलों में परिवार विशेष के सदस्यों के अतिरिक्त अन्य कोई नेता पार्टी की कमान संभाल ही नहीं सकता। कुछ छोटी पार्टियां तो प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों की तरह काम कर रही हैं। कह सकते हैं कि लोकतंत्र के खांचे में परिवार केंद्रित यह नए तरह का राजतंत्र है।
वर्ष 1994 में आई फिल्म ‘सरदार’ का एक दृश्य है, उसमें दिखाया गया है कि सरदार पटेल शाम को जब थके- हारे घर लौटें हैं। बिस्तर पर लेट ही रहें हैं कि अपनी बेटी मणिबेन से घर आई डाक के बारे में पूछते हैं। मणिबेन बताती हैं कि भाई दिल्ली आना चाहता है। इस पर पटेल मणिबेन को सुझाव देते हैं कि वह लौटती डाक से चिट्ठी भेज दे कि जब तक वह मंत्री हैं, तब तक वह दिल्ली आने की न सोचे। इसका अंतर्निहित संदेश यही है कि पटेल जब तक जीवित रहे, उन्होंने अपने परिवार के किसी व्यक्ति को राजनीति में उन्होंने आगे नहीं बढ़ाया। यह विडंबना ही है कि जिस कांग्रेस में पटेल जैसे नेताओं का वंशवाद के खिलाफ सख्त रुख रहा, उसी के शीर्ष नेतृत्व पर परिवारवाद पूरी तरह हावी रहा। हालांकि अब इस पर सवाल उठ रहे हैं, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि इसकी कोई ठोस परिणति भी निकलेगी। क्योंकि कांग्रेस में वंशवादी जड़ें बहुत गहरी हैं। वर्ष 1928 में मोतीलाल नेहरू दूसरी बार कांग्रेस अध्यक्ष बने। इसके अगले साल 1929 में उन्होंने अपने पुत्र जवाहरलाल नेहरू को अध्यक्ष बनाने के लिए अभियान चलाया और 40 वर्षीय जवाहरलाल नेहरू को अध्यक्ष बनवाने में सफल रहे। तब जवाहरलाल नेहरू से 14 साल बड़े सरदार पटेल का अध्यक्ष बनना तय था। यही वजह थी कि सरदार पटेल 1930 में अध्यक्ष बन सके। कांग्रेस में वंशवाद का दूसरा उदाहरण भी गांधी-नेहरू परिवार से ही है।1958 में पंडित नेहरू ने कांग्रेस कार्यसमिति के 24 सदस्यों में 41 वर्षीय इंदिरा गांधी को शामिल कराया और इसके अगले ही साल इंदिरा गांधी पार्टी की अध्यक्ष बना दी गई। भारतीय राजनीति में परिवारवाद के आरंभ बिंदु के रूप में इसे देखा जाता है। नेहरू के इस कदम का देहरादून से संसद सदस्य और उनके नजदीकी महावीर त्यागी ने तीखा विरोध किया था। परिवारवाद को लेकर लोकसभा में डा. लोहिया की भी नेहरू से तीखी झड़प हुई थी।
वैसे कुछ और कांग्रेसी नेता समय -समय पर परिवारवाद के विरुद्ध आवाज उठाते रहे हैं। उनमें श्रीबाबू के नाम से विख्यात बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह का नाम प्रमुख हैं।1957 के चुनाव में उनकी परिक्रमा करने वालों ने उनके बेटे शिवशंकर को टिकट देने की मांग रखी। तब श्रीबाबू ने इसे सिद्धांतहीन बताते हुए कहा था कि परिवार में एक ही व्यक्ति को टिकट मिलना चाहिए।
दुर्भाग्य से देश में ऐसे दलों की संख्या तेजी के साथ बढ़ती ही जा रही है, जहां नेतृत्व परिवार विशेष के पास ही रहता है। विडंबना यह है कि इनमें से कई दल ऐसे हैं, जिन्होंने अपनी राजनीति का आधार ही कांग्रेस के परिवारवाद के विरोध को बनाया था। अब तो स्थिति यह है कि हाल में गठित छोटे -छोटे दल भी परिवारवाद को बढ़ावा देने में जुट गए हैं। इनका गठन तो वंचित तबकों को राजनीति में भागीदारी दिलाने के नाम पर किया गया, लेकिन चुनाव के वक्त उन्हें केवल अपने परिवार के सदस्य ही योग्य दिखते हैं। शायद इसी प्रवृत्ति को रेखांकित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि परिवारवाद की राजनीति लोकतंत्र के साथ -साथ युवाओं के लिए भी सबसे बड़ी दुश्मन है।
स्पष्ट है कि वंशवाद की यह अमरबेल किसी एक दल तक सीमित नहीं है। इसे दिलचस्प कहें या विडंबना, लेकिन अधिकांश वंशवादी और परिवारवादी पार्टियां सैद्धांतिक रूप से उस लोहिया की समाजवादी विचारधारा को मानने का दावा करती हैं, जो वंशवाद और परिवारवाद के घनघोर विरोधी थे। ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि लोकतंत्र में माई -बाप मतदाताओं को यह तथ्य समझना होगा कि लोकतांत्रिक राजतंत्र समानता के सिद्धांत का सबसे बड़ा दुश्मन है। जिस दिन मतदाता यह समझने लगेगा, वह समानता आधारित लोकतंत्र का प्रस्थान बिंदु होगा।