पचमढ़ी.. जिसका गर्भ प्रकृति संपदा से सम्पन्न और जिसकी हिरण्य देह सतपुड़ा पर्वत माला की अजेय श्रेणियों से अलंकृत और प्राकृतिक परिवेश से तरबतर है… जिसका विस्तृत भू भाग ..नर्मदा घाटी का कलेवर अमरकंटक से कच्छ घाटी तक फैला हुआ है, विध्यांचल और सतपुड़ा पर्वत माला की घाटियां ..नर्मदा के कछारों से सुशोभित देश के मात्र ख्याति प्राप्त पर्यटन ओर धार्मिक स्थल सतपुड़ा की रानी पचमढ़ी के गौरव की गाथा कहती और आपका मान बढाती ….वही सतपुड़ा की रानी के परिवेश की क्या हो रही दुर्दशा और प्रकृति की निर्मम हत्या और लगातार की जा रही केन्द्र अथवा राज्य सरकार , स्थानीय निकाय द्वारा की जा रही लापरवाही ओर उपेक्षा अनदेखी का पात्र बना हुआ है।
अब तो पश्चिम के वैज्ञानिक भी मानने लगे है, कि प्राकृतिक संशाधनों की बेकाबू खपत पूरी पृथ्वी और यहां के वायुमंडल के लिए घातक सिद्ध हो रही है.. अब तो तेजी से समाप्त होते जा रहे प्राकृतिक संशाधनों का असर भी उतनी ही तेजी से यहां दिखाई पडने लगा है…
अब तो विश्व भर से आवाजें उठने लगी है कि विकास के नाम पर पचमढ़ी और आसपास के क्षेत्रों मे रसूखदारों द्वारा रिसोर्ट बनाने , होटले बनाने के नाम पर जो अनियत्रित दोहन यहां हो रहा है उस पर रोक ही नहीं कडी कार्यवाही की जानी चाहिए आखिर जिस खाई मे गिरने की तरफ हम बढ रहे है….उस तरफ बढते कदमों को रोकने के लिए कभी तो यह कहना ही पडेगा बस इतना ही काफी है।
पचमढ़ी पर्वतीय पर्यटन स्थल होने के साथ धार्मिक ऐतिहासिक , भौगोलिक , वनस्पति आयुर्वेद आदि रुपों मे भी विलक्षण स्थान माना जाता रहा है परंतु उचित संरक्षण ,सुरक्षा और रख रखाव की सरकार की उदासीनता के कारण यह बुरी तरह प्रभावित हो रहा है…. आयुर्वेद के नाम पर सजी धजी नीम हकीमों की दुकानें .नवज् टटोल रही और प्राकृतिक संशाधनों का सत्यानाश यहां हो रहा है…
इसी प्रकार हमारी प्राकृतिक , रमणीय , पुरातात्विक ऐतिहासिक दुलर्भ धार्मिक धरोहरें महादेव गुफा ,और चौरागढ़ पर्वत के नैसर्गिक सौन्दर्य स्वरूप को भौतिक आडम्बरों से लाद कर वहां की शांति सौम्यता ,प्रकृति से तादाम्य स्थापित करने वाले परिवेश पर प्रहार हुआ यहां धार्मिक हठ्धर्मियो का चश्मा उतारकर ही इस आघात की पीढा को समझा जा सकता है ।
पहली बार देश रत्न राष्ट्रपति डाक्टर राजेंद्र प्रसाद जी पचमढ़ी पधारे तब पचमढ़ी की नैसर्गिकता से प्रभावित हुये बिना नहीं रहे तब उन्होंने स्वास्थ्य लाभ की दृष्टि से पचमढ़ी मे कुछ दिन विश्राम और भ्रमण हेतु राजेंद्र गिरी उद्यान बनवाया… यहाँ उनकी यादें विराशत के रुप मे देखी जा सकती है. पंचधारा की हाथ मे लकडी थामे देशरत्न यहां भ्रमण हेतु घूमा करते थे. और पचमढ़ी के बडा महादेव गुफा मंदिर मे ध्यान के लिए गये… ऐसा मनोरम स्थान मध्य भारत मे दूसरा मिलना मुश्किल हैं यह छाया चित्र पचमढ़ी बडा महादेव मे जब देशरत्न डां. राजेंद्र प्रसाद जी गये तब ..उस समय पूजन अर्चन कर तिलक कराया …यह दुलर्भ छायाचित्र तिलक लगाते. प्रख्यात ज्योतिषाचार्य पं. परमानंद दुबे महादेव पुजारी उनका तिलक करते छायाचित्र मे दिखाई दे रहे है….
पचमढ़ी देश और प्रदेश का ऐसा मनोहारी स्थल रहा है… जहाँ पर्यटकों और शैलानियों ,राजनेताओं ,उच्चाधिकारियों का तांता सा लगा रहता है समय समय पर क ई बडे राजनेता आये.. और विकास की बडी बडी बाते कर आश्वासन का झुनझुना पकडा कर चले गये. पचमढ़ी के पानी की तासीर मे ऐसी मिलावट है जब तक कोई राजनेता या उच्चाधिकारी पचमढ़ी मे रहता है पचमढ़ी की तरक्की और विकास की बडी बडी बातें करता हैं और यहां की सरहद पार करते ही सब कुछ भूल जाता हैं आश्वासनों की टांकों लगी जर्जर चुरनी ओढे यह शैल पुत्री सतपुड़ा की रानी पचमढ़ी आज भी विकास की परिभाषा प्रयत्नों की आंखों से ढूढने प्रतीक्षा कर रही है. आखिर कब तक चलता रहेगा यहां इसी तरह विकास के नाम पर खेला..
यह कहावत यहां चरितार्थ होती दिखाई पडने लगी है सोने की मुर्गी से… सारे अंडे एक ही बार मे हजम करने की मनोवृत्ति ने पचमढ़ी की नैसर्गिकता , को किस तरह से विकास के नाम पर झोक दिया आखिर इसका जबाबदार कौन , क्या किसी मध्य भारत के किसी मसीहे को जन्म लेना पडेगा…
सतपुड़ा की रानी , को महज उचित संरक्षण नहीं मिला तब कुछ वर्षों बाद यहां झरनों के संगीत , पक्षियों का कलरव ,शीतल हवाओं के झकोरों और कल कल करते झरनो की पीयूष धारा. के स्थान पर .पर्वतों की नंगी छाती प्रकृति के दोहन पर आंसू बहाती क्षीण जलधाराये और आंखों मे वीरांगनी ही शेष रह जायेगी।
अर्थ भी लक्ष्य होना चाहिए परन्तु अन्य संसाधनों की उपेक्षा क्यों
आज विश्व भर मे प्रकृति पर्यावरण ,प्रदूषण की दुर्दशा और उसके आत्मघाती भविष्य के दुष्प्रभावों पर वैज्ञानिक ,चिंतक , लेखक ,विचारक , चिंतित है तथा इसे संरक्षित करने के लिये बार बार आग्रह कर रहे है परन्तु अर्थ की अंधी दौड मे भ्रष्टाचार की अंधी गलियों मे सारे प्रयासों को कागजी हवा बनाकर “हवा”-हवा मे उडा रही हैं यह भी उतना ही सच है कि हमारे जीवन का स्पंदन भी इस प्रकृति के कारण ही संम्भव हो सका है परन्तु क्या हम इस प्रकृति से जितना रोजना ले रहे है , उसका कोई अंश हम भूलकर भी वापस कर रहे हैं या कभी देने की भी कभी कोशिश की हैं. बल्कि सच और सच सिर्फ यही है कि हम अपनी आवश्यकताओं ओर जरूरतों की सीमा रेखा का भरपूर उलंघन कर रहे हैं और हमारी केंद्र और राज्य , सहित जिले का प्रशासन और स्थानीय निकाय धृतराष्ट्र बना यह ऩगा दृश्य खूब देख रहा है इसे बचाने को क्या मध्य क्षैत्र के किसी मसीहे को जन्म लेना होगा… यह प्रश्न आज यथावत बना प्रतीक्षा कर रहा हैं…… सरकार जागेगी या ढांक के वही तीन पात् सिद्ध होगी देगना है ऊंट किस करवट बैठेगा .
मनोज दुबे
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं प्रेस क्लब आंफ वर्किंग जर्नलिस्ट के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष