“विपक्ष के अच्छे दिन आते नहीं दिख रहे”


क्रांति कुमार पाठक
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राष्ट्रपति चुनाव के नतीजों के साथ ही उपराष्ट्रपति चुनाव को लेकर विपक्षी खेमे में सामने आई दरार इस बात का स्पष्ट संकेत है कि 2024 के लिए विपक्ष की एकजुटता की राह पथरीली है। कांग्रेस अपने सिकुड़े सियासी आधार की चुनौती से उबरने की राह तलाशने के साथ क्षेत्रीय दलों को साधे रहने की दोहरी चुनौती से जूझ रही है। अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव से लेकर ममता बनर्जी जैसे बड़े क्षेत्रीय दिग्गज अपने-अपने प्रदेशों में सियासी वर्चस्व बनाए रखने की रणनीति के तहत एक सीमा से अधिक कांग्रेस के साथ जाने का जोखिम नहीं उठाना चाहते।
इसका प्रत्यक्ष प्रमाण राष्ट्रपति चुनाव में उस समय देखने को मिला, जब पूरा विपक्ष एकजुट होने की कोशिश में औंधे मुंह गिरा। इस चुनाव में विपक्ष द्वारा न‌ए दलों को अपने पाले में करने की बात तो दूर, वह अपने पुराने सहयोगियों को भी साथ नहीं रख सका। फिर विपक्षी एकजुटता की राह में इन किंतु-परंतु के बीच ममता बनर्जी का उपराष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष की संयुक्त उम्मीदवार मार्गेट अल्वा से दूरी बनाने का एलान 2024 की विपक्षी दलों की रणनीति के लिहाज से अब तक का सबसे बड़ा झटका है। भाजपा के खिलाफ अगले लोकसभा चुनाव में विपक्ष को गोलबंद करने की पहल करने के एक वर्ष बाद ही ममता बनर्जी का यह फैसला जाहिर तौर पर कांग्रेस ही नहीं अपितु एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार को भी सन्न करने वाला है। क्योंकि ममता बनर्जी ने उपराष्ट्रपति चुनाव के प्रत्याशी तय करने के समय तक इस तरह का कोई संकेत नहीं दिया था।
मार्गेट अल्वा को उपराष्ट्रपति प्रत्याशी बनाने का फैसला करने के लिए हुई विपक्षी दलों की बैठक के बाद एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार ने भी कहा था कि भले ही तृणमूल कांग्रेस के नेता इस बैठक में शामिल नहीं थे, लेकिन वे उपराष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष की उम्मीदवार के साथ रहेंगे शरद पवार ने ममता बनर्जी के साथ हुई बातचीत के आधार पर यह बयान दिया था। निश्चित रूप से ये घटनाएं विपक्ष के हौसले को कमजोर कर सकती हैं। विपक्ष को अच्छे से पता है कि 2024 के लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली भारतीय जनता पार्टी को अगर सचमुच चुनौती देनी है तो उसके नेताओं को अपने तमाम सियासी ईगो को अलग रखकर एक मंच पर आना होगा। लेकिन हाल में जो संकेत मिले हैं, वे अच्छे नहीं हैं।
राष्ट्रपति चुनाव के दौरान द्रौपदी मुर्मू के पक्ष में विपक्षी कुनबे के दल शिवसेना, टीडीपी, झामुमो, जनता दल सेक्युलर से लेकर उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सहयोगी दलों ने भी विपक्षी उम्मीदवार यशवंत सिन्हा को तो गच्चा दिया ही, सिन्हा को उम्मीदवार बनाने वाली ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने भी चुनाव अभियान के बीच में ही कंधे झुका लिए और उसकी राष्ट्रपति चुनाव में निष्क्रियता स्पष्ट नजर आ रही थी।
कांग्रेस और शरद पवार दोनों के लिए तृणमूल कांग्रेस का यह रुख सियासी चिंता का सबब है क्योंकि ममता बनर्जी विपक्षी गोलबंदी की एक प्रमुख धुरी रही हैं। तृणमूल कांग्रेस पिछले साल मानसून सत्र से विपक्षी गोलबंदी की जमकर पैरोकारी कर रही थी लेकिन संसद में विपक्ष की अगुवाई कर रही कांग्रेस से एक सियासी दूरी भी बना रही थीं। मौजूदा मानसून सत्र के पहले हफ्ते में भी तृणमूल कांग्रेस ने महंगाई पर कांग्रेस के विरोध में शिरकत नहीं की। इस तरह क्षेत्रीय नेताओं में सबसे मुखर भाजपा विरोधी चेहरा होने के बावजूद ममता बनर्जी की मौजूदा सियासी रणनीति विपक्षी खेमे की चिंता बढ़ा रही है। क्योंकि मजबूत भाजपा से मुकाबला करने की कोशिश में जब भी वो एकजुट होने की कोशिश करते हैं, उनकी आपस की दूरी घटने के बजाय और बढ़ जाती है। राष्ट्रपति चुनाव के दौरान भी ऐसी ही तस्वीर उभरी। जहां विपक्ष इस चुनाव को 2024 से पहले एकजुट होने के लिए सेमीफाइनल मान रहा था, वहीं उसका अपना ही कुनबा बिखरता हुआ नजर आने लगा। झामुमो ने विपक्षी उम्मीदवार के समर्थन का एलान कर रखा था, मगर राजग प्रत्याशी की घोषणा होने के बाद वह दुविधा में पड़ गया। दूसरी ओर बहुजन समाज पार्टी ने बिना किसी हिचक के राजग उम्मीदवार को समर्थन देने का एलान कर दिया था। आम आदमी पार्टी भी विपक्षी उम्मीदवार यशवंत सिन्हा के नामांकन के समय मौके से दूर रही। जबकि विपक्ष नवीन पटनायक, जगन रेड्डी जैसे गैर कांग्रेसी, गैर भाजपाई दलों वाले साथियों के जुड़ने की अपेक्षा कर रहा था। हां केसीआर जरुर विपक्षी खेमे में आने के लिए तैयार हुए जो अब तक तमाम ऐसे मसलों पर अंतिम रूप से भाजपा के साथ खड़े दिखते थे। लेकिन इसके पीछे उनकी अपने राज्य की सियासी मजबूरी अधिक थी। दूसरी तरफ भाजपा अपने सहयोगियों को एकजुट रखने में पूरी तरह सफल रही। हाल के समय में रिश्तों में उतार चढाव के बावजूद जदयू भाजपा के साथ रही। यहां तक कि चिराग पासवान भी मजबूती से भाजपा के साथ नजर आए। साफ है, राष्ट्रपति चुनाव के बहाने भाजपा ने बिहार में अपना सियासी समीकरण बेहतर करने की भी कोशिश की। लेकिन विपक्ष के लिए हालात तो कठिन है ही, उसके सियासी समीकरण भी कमजोर होते दिख रहे हैं।

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