“श्रीलंका:आर्थिक तबाही से सियासी संकट तक”


क्रांति कुमार पाठक
————————
जब समस्याएं हद से पार हो जाती हैं, तब लोगों के पास और कोई चारा नहीं बचता है। श्रीलंका में यही हुआ, गुस्साए लोग आगे बढ़े और राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री के आवासों, दफ्तरों पर कब्जा कर लिया। जिसकी वजह से श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे देश छोड़कर पड़ोसी देश मालदीव जाने को मजबूर हो गए। इतना ही नहीं, श्रीलंका के संसद के अध्यक्ष महिंद्रा राजपक्षे द्वारा राष्ट्रपति के देश छोड़ने के बाद जब रानिल विक्रमसिंघे को कार्यवाहक राष्ट्रपति नियुक्त किया तो श्रीलंका की हालत और बेकाबू हो गया। जिसकी वजह से आपातकाल घोषित करना पड़ा है। दरअसल, क‌ई महीनों के आर्थिक संकट के चलते श्रीलंका की बदहाली चरम पर पहुंच गई, जब दैनिक जरूरत की चीजें, जीवन रक्षक दवाएं या तो अनुपलब्ध हो गई या उनकी कीमत इतनी बढ़ गई कि लोगों की पहुंच में नहीं रही। जाहिर है लोगों का सब्र का बांध टूट गया और वो राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री आवासों तक जाने को मजबूर हो गए।
वाकई, कितने ऐशो आराम से उनके राष्ट्रपति रह रहे थे, यह लोगों ने अपनी आंखों से देखा और दुनिया को भी दिखाया। यह विडंबना ही है कि जिस देश के लोग पेट्रोल और गैस की लंबी कतारों में घंटों खड़े होने को मजबूर हैं, उसी देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की परस्पर हंसने-बतियाने की तस्वीरें वायरल हो रही थी। लाजमी था लोगों को भड़कना, जहां की आम जनता जरूरी चीजों के लिए तरस रहे हैं, वहीं उनके राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे और प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को परस्पर हंसी-मजाक सूझ रहा था। राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री को आखिर जनता क्यों चुनती है?
वैसे श्रीलंका में विरोध प्रदर्शन का दौर काफी दिनों से जारी था, लेकिन लोग इस बात से ज्यादा क्रोधित हो गए कि प्रधानमंत्री महिंद्रा राजपक्षे ने तो अपने पद से इस्तीफा दे दिया, किंतु राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने इस्तीफा नहीं दिया। लोगों में गुस्सा इस बात की थी कि वो न तो देश की स्थितियों को सुधार रहे हैं और ना ही पद ही छोड़ रहे हैं। आम आदमी कितना नाराज है, इस बात की जानकारी राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री दोनों को थी, शायद इसीलिए परिवार सहित उन्होंने अपना आवास पहले ही खाली कर दिया था। जब लोग कब्जा करने आए तो सुरक्षाकर्मियों ने भी उन्हें रोकने के लिए कुछ खास नहीं किया। गुस्साए लोगों की संख्या इतनी थी कि सरकार घुटने टेकने को मजबूर हो ग‌ई।
दरअसल पिछले चुनाव में राजपक्षे बंधुओं को चुनाव में भारी जनादेश मिला था। इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि अन्य देशों की तरह, कोविड महामारी ने श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को बर्बाद करने में अहम भूमिका निभाई है।‌ फिर श्रीलंका एक छोटी अर्थव्यवस्था वाला देश है, जिसका प्रबंधन इसके कमजोर संस्थानों द्वारा होता है। राजपक्षे बंधुओं ने फालतू खर्च और बड़ी परियोजनाओं में कटौती नहीं की। फिर उसकी अर्थव्यवस्था की रीढ़ चाय, पर्यटन व वस्त्र उद्योग भी महामारी के कारण टूट गई। गलत समय पर कृषि क्षेत्र में सुधारों को लागू किया गया और उर्वरक आयात में कटौती की गई। राजपक्षे परिवार इस बदहाली के सभी कारणों के लिए अगर नहीं, तो ज्यादातर कारणों के लिए जिम्मेदार हैं। दरअसल, व्यापक जनादेश को पारिवारिक शासन में बदलने का यह एक और दुखद नतीजा है। वर्ष 2009 के बाद से ही यह परिवार श्रीलंका में बहुत लोकप्रिय बना हुआ था, यहां तक कि 2019 के चुनाव में भी इन्हें लोगों ने बहुत पसंद किया था। देश को आतंकवाद से मुक्ति दिलाने का श्रेय महिंद्रा राजपक्षे को दिया जाता है। अति-राष्ट्रवादीराजपक्षे से लोगों को बड़ी उम्मीदें थीं। उन्होंने जनता से बड़े बड़े वादे भी किए थे। लोक-लुभावन नीतियों के तहत बड़े पैमाने पर करों में छूट दी गई थी। लोगों को खुश करने और आत्मनिर्भर देश बनाने की कोशिश में बुनियादी कमियों या सरकार चलाने की औपचारिकता को राजपक्षे बंधु भुलते जा रहे थे। वास्तव में श्रीलंका ही नहीं, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया ने ऐसे जनादेशों को अभिशाप बनते देखा है और जिसने मतदाताओं को नाराज किया है। व्यापक जनादेश पाने नेता पार्टी कार्यकर्ताओं, उदार नौकरशाही, सहायक न्यापालिका और पालतू मीडिया के समर्थन से इसका दुरुपयोग करते हैं। श्रीलंका के मामले में राजपक्षे बंधुओं ने यह नहीं सोचा होगा कि उनका पारिवारिक शासन और आर्थिक कुप्रबंधन व्यापक जनादेश को व्यापक विरोध प्रदर्शन में तब्दील कर देगा
आज दुनिया के लिए श्रीलंका आज सबक है। कृषि और पर्यटन पर यह देश निर्भर रहा है। अत्यधिक उत्साह में आर्गेनिक खेती को अनिवार्य बनाया गया। रासायनिक खेती के लिए बाहर से उर्वरक मंगवाने में विदेशी मुद्रा खर्च हो रही थी। फलत: देश में आर्गेनिक खेती की शुरुआत हुई, लेकिन उत्पादन न निर्यात के योग्य हुआ और न देश की जरूरतें पूरी हुई। फिर कोरोना महामारी ने पर्यटन क्षेत्र को भी चौपट कर दिया। आय के स्त्रोत बंद हो गया, तो मदद की जरूरत पड़ी, लेकिन कोई भी देश कितनी मदद कर सकता है? हर किसी की अपनी अर्थव्यवस्था है। जो देश श्रीलंका को पैसे देगा, वह उम्मीद भी करेगा, पर क्या श्रीलंका में लौटाने की क्षमता है?
आज श्रीलंका जिस हालत में पहुंच गया है, अब अचानक उसकी स्थिति नहीं सुधर सकती। गौर करने की बात है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से उसे मदद नहीं मिल रही है, क्योंकि वहां की सरकार मुद्रा कोष के नियमों-निर्देशों का पालन करने के पक्ष में नहीं रही है। मुद्रा कोष धन देता है, लेकिन उसकी कुछ नीतियां हैं, जिनके तहत वह धन वापसी सुनिश्चित करना चाहता है। अति-राष्ट्रवाद के चक्कर में श्रीलंका मुद्रा कोष के नियम -कायदों को मानने को तैयार नहीं था। अब मुसीबत में फंसने के बाद वह तैयार हो रहा है और पूरी गंभीरता के साथ उसकी मुद्रा कोष से बातचीत चल रही है। इस बातचीत में बाधा न पड़े, इसके लिए निवर्तमान प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे अगले प्रधानमंत्री तक पद पर बने रहना चाहते हैं। श्रीलंका के लिए यही उचित है कि वह अपनी नीतियों को बदले या व्यावहारिक बनाए, ताकि दुनिया भर से उसके लिए मदद के रास्ते खुलें।
राजपक्षे बंधुओं की नीतियां नाकाम हो गई हैं। इनके समय में भी श्रीलंका ने ऋण लिए हैं, लेकिन उसमें भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे हैं। ऐसे कई ऋणों से उसका नुकसान हुआ है। यह भी एक सबक है कि किसी देश को ऋण बहुत संभलकर पूरी पारदर्शिता के साथ लेने चाहिए। श्रीलंका में फिलहाल चुनाव करना आसान नहीं है, क्योंकि उसके लिए भी पैसे की आवश्यकता होगी। अंतरिम सरकार जो बनेगी, उससे भी तत्काल परिणाम की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। अब जो भी सरकार बनेगी, उसे मित्र देशों से ही गुहार लगानी पड़ेगी, ताकि उपद्रव या लोगों के सड़कों पर उतरने की मजबूरी खत्म हो। श्रीलंका में जो हुआ है, उस पर दुनिया के बड़े लोकप्रिय नेताओं को भी गौर करना चाहिए। आर्थिक स्थिति अगर बिगड़ जाए, अगर लोगों को अपनी जरूरत भर का सामान भी न मिले, तो राजनीतिक -सांस्कृतिक लोकप्रियता पलक झपकते खत्म हो जाती है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Open chat
1
Hello
Can we help you?