असम की हृदय स्थली कामाख्या मंदिर” ———————–

असम की हृदय स्थली कामाख्या मंदिर”

देश के प्रसिद्ध शक्तिपीठ में से एक मां कामाख्या मंदिर असम की राजधानी दिसपुर के पास गुवाहाटी से आठ किलोमीटर दूर कामाख्या में अवस्थित है। मां का मंदिर कामाख्या रेलवे स्टेशन से तीन किलोमीटर दूर नीलांचल पर्वत पर स्थित है। अगर गुवाहाटी रेलवे स्टेशन से आते हैं तो छः किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है।यह मंदिर शक्ति की देवी सती का है। पुराणों के अनुसार माता सती के प्रति भगवान शिव का मोहभंग करने के लिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के मृत शरीर के 51भाग किए थे। जिस जिस जगह पर माता सती के शरीर के अंग गिरे,वे ही शक्ति पीठ कहलाए।कहा जाता है कि यहां पर माता सती का गुहा भाग मतलब योनि भाग गिरा था,उसी से कामाख्या महा पीठ की उत्पत्ति हुई। इसीलिए यह माता के 51 शक्तिपीठों में से एक है।इसे पूर्वांचल (बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश) में ‘कंवरू कामाख्या के नाम से जाना जाता है। हिन्दूओं के प्राचीन 51 शक्तिपीठों में कामाख्या शक्तिपीठ को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। यह मंदिर असम राज्य की समृद्ध ऐतिहासिक विरासत की दास्तां बयान करता है, इसलिए यह पवित्र मंदिर असम का हृदय कहा जाता है। इस मंदिर में देवी की कोई मूर्ति नहीं है, यहां पर देवी के योनि भाग ही पूजा की जाती है। मंदिर के गर्भगृह में एक कुंड सा है जहां सिर्फ योनि के आकार का पत्थर है,जो हमेशा फूलों से ढका रहता है।कामाख्या मंदिर देश भर में तंत्र मंत्र साधना के लिए भी विख्यात है। इसी तरह की साधना उत्तर प्रदेश के विंध्याचल में मां विंध्यवासिनी देवी के मंदिर में भी की जाती है।
नीलांचल पर्वत को कामगिरी पर्वत भी कहा जाता है। मां कामाख्या मंदिर का दर्शन करने के बाद श्रृद्धालुओं को असम के वैभव और शक्ति का एहसास हो जाता है। वर्तमान में भव्य एवं प्रभावोत्पादक मां कामाख्या का जो मंदिर है, वह वर्ष 1556 ईसवी का बना हुआ है।इसे कूच बिहार के महाराजा विश्व सिंह और उनके पुत्र नर नारायण सिंह ने बनवाया था। ऐसा विवरण मिलता है कि मां के प्राचीन मंदिर को 1564 ई. में बंगाल के कुख्यात कला विध्वंसक काला पहाड़ ने तोड़ दिया था। ऐसा माना जाता है कि मां कामाख्या में स्थित देवी के दर्शन पूजन किए बिना यदि कोई असम छोड़ कर स्थायी रूप से देश के अन्य हिस्सों में बस जाना चाहता है तो मां कामाख्या उसे अपने पास सात बार बुला लेती हैं।
अंबुवाची पर्व :- इस पीठ के बारे में एक बहुत ही रोचक कथा प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि इस जगह पर मां का योनि भाग गिरा था,जिस वजह से यहां पर माता हर साल तीन दिनों के लिए रजस्वला होती हैं। इस दौरान मंदिर को बंद कर दिया जाता है। तीन दिनों के बाद मंदिर को बहुत ही उत्साह के साथ खोला जाता है। तब मंदिर परिसर में बड़ा मेला लगता है जिसे अंबुवाची पर्व के रूप में मनाया जाता है।इसे पूरब का महाकुंभ कहा जाता है। इस चार दिवसीय मेले के दौरान हर साल यहां देश-विदेश के लाखों श्रद्धालु आते हैं। यहां पर भक्तों को प्रसाद के रूप में एक गीला कपड़ा दिया जाता है,जिसे अम्बुवाची वस्त्र कहा जाता है। कहा जाता है कि देवी के रजस्वला होने के दौरान कुंड के आस पास सफेद कपड़ा बिछा दिया जाता है। तीन बाद जब मंदिर के दरवाजे खोले जाते हैं,तब वह वस्त्र माता के रज से लाल रंग से भींगा होता है।बाद में इसी वस्त्र को भक्तों में प्रसाद के रूप में बांटा जाता है।हालांकि देश के कई मंदिरों में बलि प्रथा को बंद कर दिया गया है, किंतु मां कामाख्या मंदिर परिसर में अभी भी बड़े पैमाने पर बलि दी जाती है। यहां मछली,बकरी, कबूतर और भैंसों की बलि दी जाती है। मंदिर का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा जमीन से लगभग बीस फीट नीचे एक गुफा में स्थित है।
क्रांति कुमार पाठक

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