
वरिष्ठ पत्रकार सीताराम अग्रवाल
प्रति वर्ष 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस तथा 30 मई को हिन्दी पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है। इन दोनों दिवसों के सन्दर्भ में ही यह आलेख है, विशेष रूप से कोलकाता महानगर के परिप्रेक्ष्य में। जिस हिन्दी ने देश को आजाद कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, दुर्भाग्य है कि स्वतंत्रता के 77 वर्षों बाद भी वह देश की राष्ट्रभाषा नहीं बन पायी। हिन्दी पत्रकारिता की जननी कलकत्ता (अब कोलकाता ) है, जो 2 वर्ष बाद 200 वर्ष पूरे करने जा रही है। आजादी के पहले हिन्दी समाचारपत्रों की कमान दिग्गज पत्रकारों के हाथ में हुआ करती थी, जो पत्रकारिता के माध्यम से स्वतंत्रता की अलख जगाते थे और वे अपने उद्देश्य में सफल भी हुए। आजादी के बाद पत्रकारिता जगत का बड़ा हिस्सा शनैः शनैः उद्योगपतियों के हाथ में चला गया। अतः इसका मुख्य उद्देश्य पैसा कमाना हो गया।
कोलकाता महानगर भी इससे अछूता नहीं रहा। हालांकि यहां पत्रकारिता जगत किसी बड़े औद्योगिक घराने के अधीन नहीं रहा। आजादी के पहले से निकल रहे दो अखबार अभी भी यहां अस्तित्व में हैं। इनमें से एक हैं भारत मित्र, जो 1877 में निकला, जिसकी कमान सर्वश्री हरमुकुन्द शास्त्री, बालमुकुन्द गुप्त, बाबुराम पराड़कर जैसे दिग्गज पत्रकारों के हाथ में रही। आजादी की क्रांति में इसका अपूर्व योगदान रहा। बाद में कुछ कारणों से यह बंद हो गया। अब पुनः 2005 से यह नियमित रूप से निकल रहा है, पर किसी औद्योगिक घराने के अधीन नहीं। दूसरा है विश्वमित्र, जो प्रथम विश्व युद्ध के दौरान निकला था। बाद में यह दैनिक विश्वमित्र होकर आज भी प्रकाशित हो रहा है। आजादी के बाद महानगर से हिन्दी में कई पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हुआ। पर कोई भी पत्रकारिता के उच्च मानदंड पर खरा नहीं उतरा। बाहर के कई औद्योगिक घरानों ने अपने संस्करण निकाले, पर यहाँ की नब्ज न समझने के कारण या तो बंद हो गये या फिर घिसट रहे हैं। हालांकि बड़े औद्योगिक घराने होने के कारण इनके कर्मियों का वेतन वगैरह अच्छा था , पर कोई भी मालिक लम्बे समय तक घाटा सहन नहीं कर सकता। हां इनमें प्रभात खबर अपवाद जरूर है, जो धीरे-धीरे उन्नति कर रहा है, पर वांछित फल अभी भी दूर है। अब यहां से शुरू होने वाले समाचारपत्रों की बात करें तो इसका सबसे बड़ा कारण रहा, इसे शुद्ध व्यवसायिक रूप देना। पत्रकारिता के बजाय अनुवाद पर जोर देना। दैनिक सन्मार्ग हो या विश्वमित्र या फिर लोकमान्य या दैनिक छपते छपते। सबकी हालत एक जैसी ही थी। कर्मियों को कम तनख्वाह देना , वह भी समय पर न देना। अतः श्रमजीवी पत्रकार फटेहाल ही रहे। कुछ लोगों ने अपने निजी पत्र शुरू किये, जिनमें से कई अभी भी चल रहें हैं। इसलिये कुछ पत्रकारों ने लाचारी में कुछ धन्नासेठों के यहां हाजिरी देनी शुरू कर दी। कुछ लोग अपना समाचार या नाम छपवाने के लिए पत्रकारों को उपकृत करना शुरू किया। आगे चल कर पत्रकारों की आर्थिक स्थिति में कुछ उन्नति हुई। तकनीक के विकास से पत्रों के कलेवर की चमक बढ़ी , पर पत्रकारिता की मूल भावना तथा हिन्दी के वास्तविक विकास पर किसी ने भी जोर नहीं दिया। हां, गाहे- बगाहे बड़े- बड़े दावे जरूर किये जाते रहे।
उपरोक्त स्थिति को चन्द धन्नासेठों (उच्च मध्यम वर्ग ) ने भांप कर अपना नाम चमकाने, कम खर्च में जोरदार पब्लिसिटी पाने का एक अभिनव तरीका ढूंढ निकाला। ऐसे ही एक व्यक्ति की चर्चा करना चाहूंगा। पहले यह बता दूं कि ऐसे लोगों का हिन्दी या हिन्दी पत्रकारिता के विकास से कोई लेना-देना नहीं होता, बल्कि इसकी आड़ में अपनी छवि को चमकाना तथा समाज में प्रतिष्ठित होना है। ऐसे ही एक सज्जन ने कुछ दिन पहले कुछ पत्रों में अपने नाम से एक लेख छपवाया, जिसमें लिखा था श्री बाबूराव विष्णु पराडकर ने कोलकाता से भारत मित्र अखबार निकाला। जानकारों का कहना है कि जब भारत मित्र निकला, तब पराड़कर जी का जन्म भी नहीं हुआ था। उनका जन्म पत्र निकलने के 6 वर्ष बाद यानि 1883 में हुआ था। मुझे देश के एक प्रसिद्ध नेता की याद आती है, जब उन्होंने अपनी पार्टी के बलात्कारियों का बचाव करते हुए कहा था- लड़के हैं, गलती हो ही जाती है। वैसे ही इस व्यक्ति का बचाव करनेवाले कह ही सकते हैं- इससे क्या हुआ। यह भी कोई गलती है। पर शायद वे भूल जाते हैं कि ऐसे लोग बड़ी-बड़ी गलतियाँ करेंगे। इतिहास को विकृत करेंगे और भावी पीढ़ी ऐसे लोगों का गुणगान करने को बाध्य होगी। बात अभी यही खत्म नहीं होती। ये अपनी एक संस्था के माध्यम से हिन्दी पर एक बड़ा कार्यक्रम करने जा रहे हैं, जिसमें देश के कई विद्वानों को बुलाया जायेगा। यहां के 10 विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर, कई विशिष्ट पत्रकारों को आमंत्रित किया जायेगा। कुछेक को सम्मानित किया जायेगा। अब जो लोग आयेंगे, उन्हें इनकी असली मंशा का पता थोड़े ही है। स्वाभाविक रूप से वे मुख्य आयोजक की प्रशंसा में कुछ न कुछ कहेंगे। ऐसे आयोजक बड़े चतुर होते हैं। वे मंच पर ऐसी जगह बैठते हैं, जहां हर कोण से फोटो में उनकी प्रमुखता हो। साथ ही कभी-कभी फोटोग्राफर से सेटिंग सोने में सुहागा का काम कर देती है। बस पौ- बारह। कुछ दिनों तक सोशल मीडिया, टीवी चैनल, समाचार-पत्रों में छाये रहेंगे। पर ऐसा करनेवाले यह भूल जाते हैं कि जब तक सितारा बुलंद हैं, वे अपनी कारगुजारियो पर आनन्दित हो ले। आर जी कर कालेज व अस्पताल जैसा कोई कांड आपका सारा भांडा फोड़ देगा और हिन्दी व पत्रकारिता के साथ ‘बलात्कार ‘ जैसी प्रवृति की कलई खुल जायेगी। ऐसे और भी कुछ लोग हैं, आगे चल कर उनका मुखौटा भी उतारा जायेगा।
सज्जनो, सब ऐसे नहीं हैं। मै उन सभी लोगों का ,समाचारपत्रों का, पत्रकारों का संस्थाओं का आभारी हूं, जो हर परिस्थिति में वास्तव में पूरी निष्ठा व ईमानदारी के साथ हिन्दी व हिन्दी पत्रकारिता के विकास के लिए काम कर रहे हैं। साथ ही आप जैसे लोगों को निराश होने की जरूरत नहीं है। ऐसा समय आयेगे, जब आपको उचित सम्मान मिलेगा। अभी इतना ही सोचिये- वह सुबह कभी तो आएगी।
