“मायावती की राजनीति का रंग”


क्रांति कुमार पाठक
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लोकसभा चुनाव 2024 का जुनून अब हर एक राजनीतिक दल के सिर पर चढ़कर बोल रहा है। भारत की राजनीति को अगर हम वर्तमान संदर्भ में रखकर देखें तो एक बात स्पष्ट निकल कर आती है कि 1989-90 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट के लागू होने के बाद देश में जातिगत राजनीति का जुनून भी सिर चढ़कर बोला। विशेष रूप से उत्तर भारत के राज्यों में भी बिहार-उत्तर प्रदेश में इस राजनीति का इस कदर बोलबाला रहा कि भारत के मतदाता नागरिक जातिगत आधार पर बुरी तरह बंट गए। राजनीतिक पटल पर 1984 में स्वर्गीय कांशीराम के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी के उदय के साथ जातिगत राजनीति भी धीरे धीरे शबाब पर आने लगी। कांशीराम के साथ जब बहन मायावती आईं तो उन्होंने इस राजनीति को और तीखा बनाने का प्रयास किया और हिन्दू समाज में दलितों को अलग पहचान देकर अपनी बहुजन समाज पार्टी की पहचान को उनके साथ जोड़ा। दूसरी तरफ इसी राज्य में स्वर्गीय मुलायम सिंह यादव ने मुस्लिम मतदाताओं के साथ यही संबंध स्थापित किया। इससे सबसे बड़ा नुक्सान उस समय तक राजनीतिक शिखर पर रहने वाली कांग्रेस पार्टी को हुआ।
असल में यह और कुछ नहीं बल्कि 1963 में आचार्य कृपलानी द्वारा कांग्रेस को निपटाए जाने का वह फार्मूला था जो उन्होंने उस समय उत्तर प्रदेश के अमरोहा चुनाव क्षेत्र से लोकसभा उपचुनाव लड़ते हुए दिया था। आचार्य भारत के स्वतंत्रता के वर्ष 1947 में कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष रह चुके थे। बाद में उन्होंने अपनी अलग पार्टी बनाई और उसके बाद उसका आचार्य नरेन्द्र देव की प्रजा समाजवादी पार्टी में विलय कर दिया। 1963 में जब आचार्य अमरोहा संसदीय सीट से उपचुनाव लड़ रहे थे तो उनके मुकाबले में कांग्रेस पार्टी की तरफ से राज्यसभा में इसके नेता हाफिज मोहम्मद इब्राहिम प्रत्याशी थे। तब आचार्य ने अपनी एक चुनावी सभा में यह वक्तव्य दिया था कि कांग्रेस को समाप्त करना कोई बड़ी बात नहीं है। उस समय कांग्रेस का चुनाव निशान दो बैलों की जोड़ी हुआ करता था। आचार्य ने चुटकी लेते हुए कहा था कि कांग्रेस के दो बैल हैं एक मुसलमान और दूसरे दलित। इन दोनों को अगर जुए से खोल दो तो कांग्रेस खुद ही मर जाएगी। यह तो यकीन से नहीं कहा जा सकता है कि मायावती की बहुजन समाज पार्टी और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी ने आचार्य जी के इस फार्मूले पर जानबूझकर अमल किया, परंतु यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि 1989-90 में बनी राजनीतिक परिस्थितियों ने ऐसा ही माहौल बना दिया।
दूसरी तरफ भारतीय जनसंघ अपने जन्म से लेकर ही उत्तर प्रदेश में अपने पांव पसारने के लिए हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की नौका पर सवार था। 1989 में राममंदिर निर्माण आंदोलन के उग्र हो जाने पर जो परिस्थितियां बनी उनमें एक तरफ जनसंघ या भाजपा हो गई और दूसरी तरफ बहुजन समाज पार्टी व मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी हो गई। कांग्रेस के लिए तब स्थान पूरी तरह सिमट गया जो आज हमें प्रत्यक्ष नजर आ रहा है। वर्तमान लोकसभा चुनाव में मायावती ने बिना किसी पार्टी से गठबंधन किए अपनी पार्टी के उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं। इन्हें लेकर राजनीतिक क्षेत्रों में चर्चा है कि मायावती ना तो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में और ना तो विपक्ष नीत इंडिया अलायंस में शामिल हुईं।
ऐसे में कहा जा रहा है कि मायावती के प्रत्याशी इन दोनों ही गठबंधनों को नुक्सान पहुंचाएंगे। चूंकि मायावती जातिगत राजनीति की प्रतीक है इसलिए उनके द्वारा उतारे गए प्रत्याशी भी राज्य के जातिगत समीकरण को न‌ई दिशा दे सकते हैं, जिसका नुकसान किस सीट पर किस गठबंधन को होगा नहीं कहा जा सकता और किस को लाभ होगा इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता। बहुजन समाज पार्टी जब से उत्तर प्रदेश में सत्ता में आई तब से लेकर आज तक इस पार्टी का जिक्र जातिगत गुणा गणित के आधार पर ही किया जाता है। वैसे गौर से देखा जाए तो चुनाव का यह नजरिया संविधान विरोधी है, क्योंकि चुनाव के लिए बने जन प्रतिनिधित्व अधिनियम में साफ तौर पर कहा गया है कि कोई भी राजनीतिक दल जाति या धर्म के आधार पर लोगों को बांट कर चुनाव नहीं लड़ सकता। उसे केवल नागरिक आधार पर ही चुनाव लड़ने की इजाजत है। मगर हम देखते हैं कि चुनाव के आते ही मतदाताओं को राजनीतिक दल जाति या धर्म के आधार पर बांटने की कोशिश करते हैं। इस स्थिति को दुखद कहा जा सकता है। परंतु यह सारा मामला चुनाव आयोग के अंतर्गत आता है।
सवाल यह है कि चुनाव आयोग 1989 के बाद से इस तरफ से आंखें बंद किए क्यों पड़ा है जिसका लाभ सभी राजनीतिक दल अपने अपने हिसाब से उठाते रहे हैं। 2024 के चुनाव असाधारण चुनाव बताए जा रहे हैं और कहा जा रहा है कि इन चुनावों में भारतीय संविधान का भविष्य दांव पर लगा हुआ है। कांग्रेस और भाजपा दोनों ही इस विमर्श को अपनी अपनी तरह से व्याख्या कर रहे हैं। जहां तक बहुजन समाज पार्टी का सवाल है तो वह इस तरफ से बेपरवाह दिखती है और उसके द्वारा उतारे गए प्रत्याशी इस बात के गवाह हैं कि उनके सामने सिर्फ उनके चुनाव क्षेत्र का जातिगत गुणा गणित है। अब यह मतदाताओं को देखना है कि वे बहुजन समाज पार्टी के प्रत्याशियों को क्या केवल वोट काटु प्रत्याशी मानते हैं या उनमें विजय की संभावनाएं देखते हैं। मुलायम सिंह के बाद उनकी विरासत उनके पुत्र अखिलेश यादव के हाथ में आ जाने के बाद राज्य की राजनीतिक स्थिति में परिवर्तन तो आया है और यह परिवर्तन इसलिए भी है क्योंकि उनकी पार्टी का कांग्रेस से समझौता है।
देखने वाली बात यह होगी कि कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का यह समझौता जातिगत समीकरणों को तोड़ते हुए किस प्रकार नागरिक समीकरणों को जोड़ पाता है क्योंकि हमारा संविधान यह बताता है कि चुनाव के दौरान प्रत्येक मतदाता की पहचान ना हिन्दू की होती है ना मुसलमान की बल्कि केवल एक नागरिक की होती है। स्वतंत्र भारत का चुनावी इतिहास इस बात का गवाह है कि जब भारत के आम मतदाता नागरिक स्तर पर अपना गठबंधन बनाते हैं तो वह बड़े से बड़े राजनीतिक दल के होश भी उड़ा सकते हैं। 1972-1977, 1989-2004 और 2014 के चुनाव इसी तथ्य के गवाह हैं। इसकी वजह यह है कि अंत में मतदाता ही लोकतंत्र का मालिक होता है। अतः मायावती की राजनीति चाहे जो कुछ भी हो मगर वह लोक मूलक राजनीति न होकर जाति मूलक राजनीति कही जा सकती है

 

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