“बेहद ही खतरनाक है बादल फटने की घटनाएं”


क्रांति कुमार पाठक

बीते दिनों हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में, उससे पहले उत्तराखंड में और अब अमरनाथ गुफा के पास बादल फटने की घटना से जान माल को काफी नुकसान पहुंचा है। दरअसल, बादल फटने के बाद की बारिश ने अपना रौद्र रूप दिखाया है। जिसमें न जाने कितनी जानें, कितने घर, कितने पुल, कितने सड़क और कितने जानवर दह बह गए। दरअसल, मौसम वैज्ञानिकों के मुताबिक एक घंटे में 100 मिमी से अधिक की बारिश को बादल फटना माना जाता है। वैसे तो आमतौर पर बादल फटने की घटनाएं बारिश के मौसम में होती थीं, लेकिन अब तो पिछले कुछ समय से मानसून से पहले ही बादल फटने की घटनाएं भी आम हो गई है जो कि काफी खतरनाक संकेत हैं।
गौरतलब है कि क‌ई दशक पहले बादल फटने की घटनाएं कभी -कभार ही हुआ करती थी। लेकिन साल 2015 से देश में बादल फटने की घटनाओं में आए दिन बढ़ोत्तरी हो रही है। सबसे बड़ी चिंता की बात तो यह है कि आज तक इस पर कोई अंकुश नहीं लगा है। इसमें जान-माल का तो नुकसान होता ही है। करोड़ों मूल्य की संपत्ति भी देखते ही देखते बह जाती है, स्वाहा हो जाती है, पशुधन की हानि होती है, गांव के गांव और घर मटियामेट हो जाते हैं, संचार व्यवस्था छिन्न भिन्न हो जाती है, पुल और सड़क के दहने-बहने से रास्ते भी अवरुद्ध हो जाते हैं, नतीजतन यात्री अधर में फंस जाते हैं, बिजली-पानी की घोर किल्लत हो जाती है और स्थानीय लोग क‌ई-क‌ई दिनों तक भूखे-प्यासे राहत पहुंचने की बाट जोहते रहते हैं। अक्सर बादल फटने की घटनाओं से देश के उत्तरी पहाड़ी राज्यों हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू कश्मीर को दो-चार होना पड़ता है। ऐसा लगता है यह इन राज्यों की नियति ही बन चुकी है।
दरअसल बीते साल म‌ई महीने में ही उत्तराखंड में दशरथ पर्वत पर, देवप्रयाग पौड़ी और चकराता में बीजनु के निकट बिजनाड छानी में व हिमाचल के लाहौल स्पीति में तोजिंग नाले के पास, किन्नौर में वीरघम पंचायत और कुल्लू में मणिकर्ण के ब्रह्मगंगा नाले की पहाड़ी पर, जम्मू कश्मीर में पवित्र अमरनाथ गुफा के पास, किश्तवाड़ के सुदूर गांव और लद्दाख में कारगिल के पास बादल फटने से पनबिजली परियोजना ध्वस्त होने से भारी तबाही ने लोगों को हिलाकर रख दिया और यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर इन आपदाओं से देश को कब मुक्ति मिलेगी। देखा जाए तो प्राकृतिक आपदाओं का पहाड़ों के साथ चोली-दामन का रिश्ता है। मध्य हिमालय का यह भूभाग दुनिया की नव विकसित पहाड़ी श्रंखलाओं में गिना जाता है। यहां भूस्खलन और बादल फटने की घटनाएं आम हो गई है। 2015 के बाद से शायद ही कोई ऐसा साल रहा हो जब यहां मानसून के मौसम इस तरह के भीषण हादसे न हुए हों। वर्ष 2015 के जून-जुलाई महीनों में पहाड़ों पर कम से कम दर्जन भर बादल फटने की हुई घटनाओं में लगातार जनधन की हानि हुई है। इस तरह की घटनाएं अक्सर उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर में ही ज्यादा होती है। ऐसे हादसों में लगातार हो रही बारिश और बादल फटने से पानी का उफान इतना तेज होता है कि वह कच्चे -पक्के रास्तों व मकानों, पशुओं और लोगों तक को अपने साथ बहा ले जाता है।
इससे राहत कर्मी और सेना के जवानों को कुछ किलोमीटर की दूरी तय कर घटनास्थल तक पहुंचने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है और वक्त भी लगता है। इस वजह से राहत कार्यों में भी देरी होती है। ऐसे हालातों में भारी बारिश और मलबा गिरने के बावजूद स्थानीय लोग ही राहत कार्य में अहम भूमिका निभाते हैं। अंग्रेजी में बादल फटने को क्लाउडब्रस्ट कहते हैं। वातावरण में जब दबाव कम होता है और एक छोटे दायरे में अचानक भारी मात्रा में बारिश होती है, तब उसे बादल फटने की घटना कही जाती है। दरअसल ऐसा तब होता है जब बादल आपस में या किसी पहाड़ी से टकराते हैं। तब अचानक भारी मात्रा में पानी बरसता है। इसमें 100 मिली मीटर प्रति घंटा या फिर उससे भी अधिक तेजी से बारिश होती है। 2500 से 4000 मीटर ऊंचाई पर जब भारी नमी से लदी हवा जब-जब अपने रास्ते में पड़ने वाली पहाड़ियों से टकराती है, तब बादल फटने से आमतौर पर बिजली चमकने, गरज और तेज आंधी के साथ भारी बारिश होती है। एक साथ भारी मात्रा में पानी गिरने से धरती उसे सोख नहीं पाती और बाढ़ की स्थिति पैदा हो जाती है।
बादल फटने पर दो सेन्टीमीटर से ज्यादा चंद मिनटों में ही बारिश हो जाती है, जिससे चारों तरफ भारी तबाही मच जाती है। बीच में यदि हवा बंद हो जाए तो बारिश का समूचा पानी एक छोटे से इलाके में जमा होकर फैलने लगता है। उस स्थिति में वह अपने साथ रास्ते में मलवा आदि जो भी आता है, उसे बहा ले जाता है। यह कटु सत्य है कि आज देश की 6.88 फीसदी आबादी पर प्राकृतिक आपदा का खतरा मंडरा रहा है। जलवायु परिवर्तन ने इसमें अहम भूमिका निभाही है। वहीं वैज्ञानिक बादल फटने की घटनाओं को जलवायु परिवर्तन से जोड़कर देख रहे हैं।

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