“अस्तित्व के संकट से जूझती बालासाहेब की शिवसेना”


क्रांति कुमार पाठक
बीते कई दशकों से महाराष्ट्र की राजनीति में गहरा असर रखने वाली शिवसेना जिस तरह से बिखराव से ग्रस्त है, उसके लिए उद्धत ठाकरे अपने अलावा किसी अन्य को दोष नहीं दे सकते हैं। क्योंकि मराठी अस्मिता और कट्टर हिंदूत्व की राजनीति करने वाली शिवसेना का गठन जिन बालासाहेब ठाकरे ने किया था, उन्होंने कभी स्वयं सत्ता की कमान नहीं संभाली, लेकिन उद्धव ठाकरे ने इस परंपरा को भी तोड़ दिया और पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा के साथ गठबंधन कर चुनाव में जीत हासिल करने के बाद शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बनने के लालच में न केवल भाजपा का साथ छोड़ दिया, बल्कि हिंदूत्व के साथ भी समझौता कर लिया। क्योंकि वह उस कांग्रेस और एनसीपी के शरण में चले गए, जो उसे सांप्रदायिक कहकर कोसती रहती थी। यही फैसला शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के लिए आत्मघाती सिद्ध हुआ।
एक समय था जब शिवसेना भाजपा की वरिष्ठ सहयोगी हुआ करती थी, लेकिन बाद में भाजपा के मुकाबले उसके वोट प्रतिशत और सीटों में कमी आती गई। परिणाम यह हुआ कि मुख्यमंत्री पद भाजपा के हिस्से में चला गया। शायद शिवसेना इस कड़वी राजनीतिक हकीकत को हजम नहीं कर पाई और इसीलिए पिछले चुनाव के बाद उसने यह कहना शुरू कर दिया कि भाजपा ने उसे मुख्यमंत्री बनाने का वादा किया था। चूंकि भाजपा ने ऐसा कोई वादा नहीं किया था, इसलिए वह उसे मुख्यमंत्री पद देने को तैयार नहीं हुई। लेकिन शिवसेना चुनाव नतीजे आने के बाद इस पर अड़ गई कि मुख्यमंत्री तो शिवसेना का ही होगा। वह भी तब जबकि उसे 56 सीटें मिली थीं और भाजपा को 105। इसके बाद सत्ता के लिए उतावले दिख रहे उद्धव ठाकरे ने एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार को राजी कर लिया, बल्कि धूर विरोधी कांग्रेस को भी इसके लिए मना लिया यह कहकर कि भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए उसे शिवसेना का साथ देना चाहिए।
सबसे आश्चर्य की बात यह रही कि कांग्रेस भी इसके लिए तैयार हो गई, लेकिन आज स्थिति यह है कि जिस शरद पवार ने महाराष्ट्र में महाविकास आघाड़ी सरकार बनवाने में अग्रिम भूमिका निभाई, आज वह शिवसेना में हुए विद्रोह को उसका आंतरिक मामला बताकर कर्तव्य की इतिश्री कर रहे हैं। इससे तो यही लगता है कि उन्होंने शिवसेना का इस्तेमाल कर उसे उसके हाल पर छोड़ दिया है। जबकि महाराष्ट्र सरकार की कमान भले ही उद्धव ठाकरे के हाथ में हो, लेकिन उसे एक तरह से शरद पवार ही चला रहे थे। उन्होंने गृहमंत्रालय के साथ वित्त मंत्रालय अपने दल के नेताओं को दिया। हालांकि शिवसेना के क‌ई नेता कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बनाने को तैयार नहीं थे, लेकिन उद्धव ठाकरे के आगे उनकी एक नहीं चली। उन्होंने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए जिस तरह शिवसेना की विचारधारा का परित्याग किया, उसके दुष्परिणाम सामने आने ही थे।
शिव सैनिकों ने अपने ही मुख्यमंत्री और पार्टी प्रमुख उद्धव ठाकरे के खिलाफ बगावत कर दी। दरअसल शिवसेना में इतने व्यापक स्तर पर विद्रोह पहली बार हुआ। हालांकि इस राजनीतिक बगावत की पूरी संभावनाएं सरकार गठन के समय ही बन गई थी। यही वजह थी कि महाविकास आघाड़ी के शिल्पकार एवं एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार ने मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को शुरू में ही आगाह कर दिया था कि मंत्री और विधायक इस कदर चिंता और गुस्से में हैं कि वे विद्रोह कर सकते हैं, लिहाजा मुख्यमंत्री अपनी पार्टी और गठबंधन के नेताओं से सहज मुलाकातें करना शुरू कर दें। खुफिया विभाग ने भी मुख्यमंत्री और गृहमंत्री को ऐसी रपटें दी होंगी। एनसीपी विधायक दिलीप वलसे पाटिल गृहमंत्री हैं। उनके अधीन ही खुफिया विभाग है। उन्होंने ऐसी बगावत के प्रति मुख्यमंत्री को आगाह नहीं किया अथवा जान बूझकर ऐसी ‘लीड’ को दबा दिया, शरद पवार ने भी एक बैठक के दौरान उनसे पूछा था। बहरहाल, मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने ऐसी चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया। नतीजा सामने है और मामला ‘राजभवन’ और ‘विधानसभा भवन’ तक पहुंच चुका है।
दरअसल, यह बगावत होना ही था, क्योंकि शिवसेना के ये निर्वाचित नेता, जनादेश के बाद से ही, भाजपा के साथ सरकार बनाने के पक्षधर थे। ये नेता कांग्रेस के धुर विरोधी माने जाते रहे हैं, लिहाजा उद्धव ठाकरे ने सत्ता की खातिर कांग्रेस और एनसीपी के साथ जो गठबंधन किया था, उसके वे कट्टर विरोधी थे, लेकिन पार्टी अनुशासन के मद्देनजर ढाई साल तक घुटते रहे, खामोश रहे। शिवसेना के नेता और कार्यकर्ता जो घुटन महसूस कर रहे थे, उसका पूरा लाभ भाजपा ने उठाया। भले ही भाजपा यह कह रही हो कि शिवसेना में विद्रोह से उसका कोई लेना देना नहीं, लेकिन कोई भी समझ सकता है कि विद्रोही शिव सैनिकों से उसका संपर्क – संवाद कायम होगा। लगता है देवेंद्र फडणवीस ने इस बार बहुत सधे ढंग से अपनी चाल चली है। इसके पहले फडणवीस के कारण ही भाजपा ने पहले राज्यसभा चुनाव में बढ़त हासिल की और फिर विधान परिषद चुनाव में भी। इसके साथ ही उन्होंने यह बात बार बार उजागर किया कि महाविकास आघाड़ी सरकार एक बेमेल गठबंधन वाली सरकार है।
यह पहले दिन से तय था कि महाविकास आघाड़ी के नाम पर जो गठबंधन बना, वह अस्थायी है, क्योंकि कांग्रेस लगातार यह कह रही थी कि वह अगला चुनाव अपने दम पर लड़ेगी, लेकिन उद्धव ठाकरे दीवार पर लिखी इबारत पढ़ने से इंकार करते रहे। उन्हें यह भी पता था कि एनसीपी भी उसके साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ने वाली और वह अपने बलबूते कोई करिश्मा नहीं कर पाएंगे, फिर भी उन्होंने दूरदर्शिता दिखाने से इंकार किया।
यही वजह थी कि शिव सैनिक इस बात को लेकर खासा बेचैन थे कि वे अगले चुनाव में किस मुंह से जनता के पास जाएंगे। फिर यह बेचैनी उस समय बगावत के रूप में सामने आया है, जब शिवसेना के सबसे कद्दावर नेता और कुल 48 से ज्यादा बागियों का नेतृत्व करने वाले एकनाथ शिंदे ने फोन पर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से बात करते हुए साफ दलील दी कि चूंकि आप ढ़ाई साल मुख्यमंत्री रह चुके हैं, लिहाजा अब भाजपा के साथ समझौता कर सरकार बनाई जाए। इसके अलावा हमारी कोई और शर्त नहीं है। उद्धव ठाकरे इस दलील को सिरे से नकार चुके हैं और बगावत कायम है। ऐसे में अब जो विधायक उद्धव ठाकरे के साथ रह ग‌ए हैं, उनके बूते सदन में बहुमत साबित करना लगभग असंभव है। फिर भी एनसीपी और कांग्रेस अपना समर्थन जारी रखे हैं। अब महाविकास आघाड़ी सरकार गिर जाएगी या गिरते -गिरते बच जाएगी अथवा विधानसभा भंग करने की सिफारिश की जाएगी या राज्यपाल कोई नया आदेश देते हैं, ये तमाम भविष्य के सवाल हैं, लेकिन शिवसेना के सामने, स्थापना के 56 साल बाद, अस्तित्व का सबसे गंभीर संकट उभर आया है। फिलहाल शिवसेना का संगठन और बहुधा काडर ठाकरे परिवार के संग है। काडर से शिंदे गुट को बहुत ज्यादा समर्थन नहीं मिला है। शिंदे के नेतृत्व में विधायक और ज्यादातर सांसद भी, यदि लामबंद रहते हैं, तो पार्टी का भावी चेहरा भी बदल सकता है। फिलहाल इस प्रकरण का राजनीतिक निष्कर्ष देखना जरूरी है कि ऊंट किस करवट बैठती है। लेकिन शिवसेना का संकट यह बता रहा है कि विचारधारा से समझौता करने और परिवारवाद को बढ़ावा देने के नतीजे अच्छे नहीं होते।

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