अन्तर्राष्ट्रीय चाय दिवस (21 मई) लघुकथा :  पगली चाय – रावेल  पुष्प

कस्बाई शहर के पूरे बाजार में वैसे तो कई तरह की दुकानें थीं और चाय नाश्ते की भी, लेकिन बाजार के आखिरी छोर पर हाल ही में खुली एक छोटी- सी गुमटीनुमा दुकान लोगों का ध्यान खींच रही थी,जिस पर लगी तख्ती पर लिखा था – पगली चाय !
वो चाय धीरे-धीरे लोगों को इतनी पसंद आने लगी कि शाम होते ही सबके पांव बस अनायास उधर ही मुड़ जाते। अब वो चाय में अदरक तो कूट कर डालता ही था, इसके अलावा कोई मसाला भी डालता । एक बार उसकी कड़क चाय पीकर सभी तृप्त हो जाते।उसके पास बस चाय दो ही तरह की थी-  छोटे भांड़(कुल्हड़) वाली छोटी पगली और बड़े भांड़ वाली बड़ी पगली। छोटी पगली 20 की तो बड़ी पगली 40 रुपये की थी।वहां एक किनारे पर बस एक ही बेंच रखी थी, जिस पर एक- दो बुजुर्ग बैठ जाते। वैसे अमूमन सभी खड़े-खड़े ही चाय पीते और बतियाते।
उस दुकान के सामने अब कई कार वाले भी परिवार सहित चाय पीने पहुंचने लगे थे।  कार लगते ही दो-तीन टेनिये(छोटे कर्मचारी लड़के) दौड़ पड़ते और कार के पास पहुंचकर पूछ लेते- साहब, कितनी पगली चाहिए? जवाब में चार-पांच जैसा भी होता,वे कार में बड़ी पगली ले जाते। कार वालों के लिए बड़ी पगली का रेट 40 की जगह ₹50 था।  लच्छू दुकानदार से इसका कारण पूछने पर उसने बताया कि ये सिर्फ चाय की कीमत नहीं है, बाबू लोगों के स्टेटस की भी कीमत है। इसके अलावा टेनिया लोगों को कई कार वाले अलग से ₹10-20 टिप भी दे देते। कहां तो लच्छू यानि लक्ष्मीकांत पढ़- लिखकर पागल बना बैठा था, आज उसकी पगली चाय ने लोगों को पागल बना दिया था और उसे सचमुच का लक्ष्मी कांत!

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