“महाराष्ट्र सत्ता परिवर्तन से उपजे कुछ सबक”


क्रांति कुमार पाठक
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हालांकि महाराष्ट्र की रोमांचक सियासी पटकथा अपनी गति को प्राप्त कर चुकी है, पर इससे उपजे कुछ सवाल हिन्दुस्तानी राजनीति, राजनीतिज्ञों और उनमें रूचि रखने वालों को लंबे समय तक उलझाए रखेंगे। क्या अब विपक्ष में भाजपा से जूझने का दमखम है? क्या 2024 के लोकसभा चुनावों में इस तरह से बिखरा हुआ विपक्ष कोई कमाल कर पाएगा? क्या इन सरकारों के असमय औंधे मुंह गिरने से उन वोटरों की आशाओं पर कुठाराघात नहीं है, जो भाजपा नीत राजग गठबंधन की हुकूमत नहीं चाहते?
पहले प्रश्न का उत्तर तलाशने के लिए कर्नाटक से शुरू करते हैं। यहां म‌ई 2018 के विधानसभा चुनाव में किसी को भी बहुमत हासिल नहीं हुआ था। हां, भाजपा जरुर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, लेकिन उस समय जनता दल (सेक्युलर) और कांग्रेस ने गठबंधन की सरकार बना ली थी। कांग्रेस के पास अधिक विधायक होते हुए भी उसने एच डी कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाना मंजूर कर लिया। उस समय तमाम राजनीतिक विश्लेषकों ने माना था कि मोदी और शाह की आंधी को रोकने के लिए ऐसी कुर्बानी जरुरी है। किंतु यह अवधारणा तब सही साबित होती जब यह गठबंधन सरकार पांच साल काम कर जन-कल्याण के न‌ए रिकॉर्ड रचती, पर ऐसा हुआ नहीं। वहां जल्द ही आपसी अंतर्कलह और मंत्रियों के भ्रष्टाचार की खबरें हवा निकलकर फैलने लगीं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कभी मुख्यमंत्री कुमारस्वामी पर सीधा हमला बोलते, तो कभी कुमारस्वामी पलटकर कांग्रेस पर जहर उगलते। इस तरह बस्ती बसने से पहले ही उजड़ने के आसार नजर आने लगे थे। सरकार भरोसा बनाने और बचाने में नाकाम साबित हो रही थी। नतीजतन, कांग्रेस और जनता दल (सेक्युलर) गठबंधन की सरकार सिर्फ 14 महीने चार दिन बाद इतिहास के गर्त में समा गया और भाजपा ने जो गढ़ गंवाया था, वह उसे पुनः हासिल कर लिया। उसके बाद यही कहानी भाजपा द्वारा पहले मध्य प्रदेश में और अब महाराष्ट्र में दोहराई गई है।
यह क्या आश्चर्यजनक नहीं है कि पिछले कुछ सालों से विपक्ष के समझौते अल्पजीवी होते हैं तो वहीं राजग के दीर्धजीवी? बिहार के सफल प्रयोग के बाद अब महाराष्ट्र में अपने से छोटी पार्टी का मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा यही तो साबित करने की कोशिश कर रही है। शायद आपके मन में आ रहा हो कि अगर शिवसेना का मुख्यमंत्री ही बनाना था, तो 31 महीने पहले उद्धव ठाकरे से आखिर टकराव लेने की क्या जरूरत थी? दरअसल यहां एक फर्क समझना जरूरी है। मातोश्री का उत्तराधिकारी होने के नाते शिंदे के मुकाबले उद्धव ठाकरे मजबूत साबित होते। वह यकीनन सियासी ‘भाऊ’ का दर्जा दोबारा हासिल करने की कोशिश करते। इसके उल्ट शिंदे को यह पुरस्कार अपनी पार्टी तोड़ने के एवज में मिला है। अगर शिंदे असफल साबित होते हैं, तब भी भाजपा को नुकसान नहीं, फायदा होगा। एक मजबूत शिवसेना की जगह उसके दो धड़े राजनीतिक तौर पर भाजपा के लिए कभी चुनौती नहीं बन सकेंगे। अगर महाराष्ट्र का यह प्रयोग सफल रहा, तो आने वाले दिनों में कुछ और न‌ए सियासी करतबें देखने को मिल सकता है।
वैसे विपक्ष अक्सर आरोप लगाता है कि सरकार केंद्रीय एजेंसियों का दुरुपयोग कर सत्ता हथिया ले रही है, तो इन एजेंसियों का सियासी इस्तेमाल तो पहले भी होता रहा है। सवाल उठता है कि सत्ता का ऐसा दुरुपयोग क्यों किया जाता रहा है? दरअसल, जिन लोगों के हाथ काले है, उन्हें अपने दाग छिपाने के लिए कोई न कोई सहारा ढूंढना पड़ता है। यही वजह है कि राजनीति को उद्योग मानने वाले लोग आवश्यकतानुसार पार्टियां बदल लेते हैं। कुछ पार्टियां तो टिकट देने के लिए भी ‘चंदा’ अथवा ‘सहयोग राशि’ लेती हैं। जो लोग बड़ी मात्रा में धनराशि खर्च करके यहां पहुंचते हैं, उन्हें अपने ‘इनवेस्टमेंट’ की सुरक्षा के लिए सत्ता की जरूरत पड़ती है। ऐसे लोग ही भय या प्रलोभन का पहला शिकार बनते हैं। यही नहीं, अधिकांश क्षेत्रीय दलों की कमान कुछ खानदानों के हाथ में हैं। ये लोग अपनी पार्टियों को सियासी पार्टी के मुकाबले निजी स्वामित्व वाली कंपनी के तौर पर आंकते हैं। दिक्कत तब होती है, जब किसी जुझारू नेता की दूसरी अथवा तीसरी पीढ़ी कमान संभालती है। पार्टी का पुराना काडर उनकी न‌ई रीति- नीति को मंजूर करने में हिचकता है और फिर अनबन शुरू हो जाती है। महाराष्ट्र की घटना और शिवसेना में बगावत इसका सबसे नवीनतम उदाहरण है।
अब आते हैं दूसरे प्रश्न पर कि क्या 2024 के लोकसभा चुनाव में बिखरा हुआ विपक्ष कोई कमाल कर पाएगा? यह सच है कि ऊपरी तौर पर भारत के तमाम राज्य तथाकथित विपक्ष द्वारा संचालित हैं। इनमें द्रविड़ मुनेत्र कषगम को छोड़ दें, तो केरल से लेकर पंजाब तक ऐसे तमाम दल हैं, जो मुख्य विपक्षी पार्टी यानी कांग्रेस से टकराते हैं। दक्षिण में आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, तेलंगाना और केरल में गैर -भाजपा सरकारें हैं। वे अगर भाजपा को नहीं चाहतीं, तो कांग्रेस को भी न पनपने देने के प्रति कटिबद्ध हैं। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, पंजाब और दिल्ली में आम आदमी पार्टी व ओडिशा में बीजू जनता दल भी इसी रास्ते पर चल रही हैं। ऐसा नहीं है कि इन्हें भी एक छतरी के तले लाने की कोशिश नहीं की गई। बीते दिनों राष्ट्रपति प्रत्याशी के लिए होने वाले विपक्षी कवायदों को याद कर लें। पहल करने वालों को उम्मीद थी कि यशवंत सिन्हा के पीछे एकजुट गैर भाजपाई दल खड़े होंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और अब यशवंत सिन्हा एक सांकेतिक लड़ाई लड़ते दिखाई पड़ रहे हैं।
अब आते हैं आखिरी सवाल पर कि क्या यह उन लोगों की आकांक्षाओं की हत्या नहीं है, जो गैर-राजग सरकार चाहते हैं? अगर पिछले लोकसभा चुनावों को देखें, तो भाजपा और उसके सहयोगी दलों को लगभग 45 फीसदी मत मिले। इसका एक अर्थ यह भी है कि 55 फीसदी लोग इस गठबंधन के खिलाफ थे। यही वह मुकाम है, जहां तमाम आशावादी मान बैठते हैं कि 2024 के लोकसभा चुनावों में कोई चमत्कार होगा और सत्तारूढ़ गठबंधन के विपक्ष में पड़ने वाले मत एकजुट हो सकेंगे। अतीत में ऐसा दो बार हुआ है और आगे इसे दोहराए जाने के लिए जय प्रकाश नारायण और वीपी सिंह की तरह के किसी शख्स की जरूरत होगी, जो फिलहाल ऐसी सियासी शख्सियत कहीं से भी नजर नहीं आते हैं।

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