“निकट भविष्य में विपक्ष के अच्छे दिन आते नहीं दिख रहे”

क्रांति कुमार पाठक
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देश की सियासत में बीते दिनों तीन बड़ी घटनाएं हुई। पहली, देश के तीन लोकसभा और राज्यों के सात विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनावों के नतीजे आए, जिसमें विपक्ष को कुछ खास हाथ नहीं लगा। दूसरी, राष्ट्रपति चुनाव के बहाने एकजुट होने की विपक्षी दलों की तमाम कोशिशें धरी की धरी रह गई। तीसरी घटना यह रही कि महाराष्ट्र की आघाड़ी सरकार, शिवसेना में हुए फूट से संकट में पड़ ग‌ई और अंततोगत्वा उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना ही पड़ा। इन घटनाओं से विपक्ष जहां एक ओर अपने नए साथियों को अपने साथ पाले में लाना तो दूर, वह अपने पुराने सहयोगियों को भी अपने साथ रखने में नाकामयाब दिखा। निश्चित रूप से ये घटनाएं विपक्ष के हौसले को कमजोर कर सकती है। हालांकि देश के तमाम विपक्षी दलों को यह अच्छे से पता है कि आगामी 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा के नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली राजग गठबंधन को अगर सचमुच में चुनौती देनी है तो उसके तमाम नेताओं को अपने सियासी ईगो को किनारे रखकर एक मंच पर आना ही होगा और एकजुटता दिखानी ही होगी।
लेकिन हाल के दिनों में जो संकेत मिले हैं, वे अच्छे नहीं हैं। क्योंकि दो प्रदेश उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में ये पार्टियां कहीं अधिक संघर्ष करती दिखाई पड़ रही हैं। जबकि 2024 में अगर विपक्ष को भाजपा के सामने चुनौती पेश करना है तो निःसंदेह उसे इन दोनों ही राज्यों में उसे हर हाल में मुकाबले में आना ही होगा। क्योंकि इन दोनों ही राज्यों से तकरीबन 128 लोकसभा सीटें आती हैं।
पहले बात उत्तर प्रदेश की करें तो, हाल ही में हुए राज्य में हुए दो लोकसभा के उपचुनावों‌ में जहां भाजपा ने समाजवादी पार्टी के सबसे मजबूत गढ़ माने जाने वाले रामपुर और आजमगढ़ लोकसभा सीटें छीनकर उसके लिए 2024 से पहले ही खतरे की घंटी बजा दी। इस जीत के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने दावा किया है कि अगले लोकसभा चुनाव में वह राज्य की सभी 80 सीटों पर विजय हासिल करेंगे। योगी आदित्यनाथ के दावे अपनी जगह, लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने मुस्लिम बहुल सीट पर जिस तरह से अपनी जीत दर्ज की वह विपक्ष के लिए निस्संदेह चिंता का सबब है। दरअसल हाल के वर्षों में प्रदेश में भाजपा को हराने के लिए विपक्ष ने क‌ई प्रयोग किए ‌ कभी अखिलेश और मायावती ने आपस में हाथ मिलाया तो कभी कांग्रेस ने अखिलेश यादव का साथ दिया। लेकिन परिणाम वही ढ़ाक के तीन पात ही रहे। ऐसे में उत्तर प्रदेश भी अब ऐसा राज्य बन गया है जहां मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा दिनोंदिन और मजबूत ही होती दिख रही है।
उसी तरह महाराष्ट्र की बात करें तो यहां ढ़ाई साल तक मजबूती से चलने वाली उद्धव ठाकरे की महा विकास आघाड़ी सरकार, अचानक शिवसेना के अंदर हुई बगावत से ऐसी लड़खड़ाई कि देखते ही देखते शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस की महा विकास आघाड़ी सरकार सत्ता से बेदखल हो गई और वहां शिवसेना में बगावत का नेतृत्व करने वाले एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में भाजपा-शिवसेना (एकनाथ शिंदे गुट) की सरकार बन गई। भाजपा को अंदाजा था कि अगर 2024 तक महा विकास आघाड़ी सरकार एकजुट होकर सत्ता में रही तो उसके लिए राज्य में जबरदस्त चुनौती मिल सकती है या यूं कहें कि जबरदस्त परेशानी खड़ी हो सकती थी। ऐसे में शिवसेना में बगावत होना भाजपा के लिए मुंहमांगी मुराद मिल गई तो वहीं विपक्षी खेमे के लिए जबर्दस्त झटका। फिर कांग्रेस यहां अभी भी अपनी अंदरुनी लड़ाई को नियंत्रित करने में पूरी तरह से कामयाब नहीं हुई है। हां शरद पवार की अगुवाई वाली एनसीपी में जरुर एकजुटता दिख रही है, लेकिन मौजूदा सियासी समीकरण में वह अकेले दम भाजपा को किस हद तक चुनौती दे पाएगी, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा। ऐसे में पिछले दिनों महाराष्ट्र की महा विकास आघाड़ी सरकार का जो हश्र देखने को मिला उससे तो तय है कि गठबंधन और खासकर शिवसेना में बड़ी दरार पड़ चुकी है, जो गठबंधन के लिए आगे की राह कठिन बनाएगी।
दरअसल, इसका पहला संकेत इस साल के अंत में होने वाले मुंबई महानगरपालिका चुनाव में ही दिख सकता है। अगर उद्धव ठाकरे की शिवसेना इस चुनाव में अपना सबसे मजबूत गढ़ बचाने में सफल नहीं होती है तो निःसंदेह आगे उसकी मुश्किलें काफी बढ़ जाएंगी। कुल मिलाकर महाराष्ट्र में फिलहाल बदलाव की बयार ने विपक्ष की रणनीति बेपटरी होती दिख रही है। बाकी हिंदी पट्टी राज्यों में भाजपा पहले से ही मजबूत स्थिति में है। ऐसे में विपक्ष को आम चुनाव से ठीक पहले इन घटनाक्रमों के बीच साफ संकेत मिल गया है कि फिलहाल उनके अच्छे दिन आते नहीं दिख रहे हैं।
वाकई विपक्ष के लिए हालात तो कठिन है ही, उसके सियासी समीकरण भी अब कमजोर होते दिख रहे हैं। मजबूत भाजपा से मुकाबला करने की कोशिश में विपक्ष जब भी एकजुट होने की कोशिश करता है, उसकी आपस की दूरी घटने के बजाय और बढ़ जाती है। राष्ट्रपति चुनाव को लेकर भी ऐसी ही तस्वीरें उभरी। विपक्ष जहां इस चुनाव को 2024 से पहले एकजुट होने का सेमीफाइनल मान रहा था, वहीं उसका अपना ही कुनबा बिखरता हुआ नजर आने लगा है। इस चुनाव में जहां झारखंड मुक्ति मोर्चा ने विपक्षी उम्मीदवार के समर्थन का एलान कर रखा था, मगर राजग उम्मीदवार की घोषणा होने के बाद से ही वह दुविधा में पड़ गया है। दूसरी ओर बहुजन समाज पार्टी ने बिना किसी हिचक के राजग उम्मीदवार को समर्थन देने का एलान कर दिया। जबकि आम आदमी पार्टी भी विपक्षी प्रत्याशी यशवंत सिन्हा के नामांकन के समय मौके से दूर रही। जबकि विपक्ष नवीन पटनायक, जगन रेड्डी जैसे गैर कांग्रेसी, गैर भाजपाई दलों वाले साथियों के आपस में जुड़ने की अपेक्षा कर रहा था। हां, केसीआर जरुर विपक्षी खेमे में आने के लिए तैयार हैं जो कि अब तक तमाम ऐसे मुद्दों पर अंतिम में भाजपा के साथ खड़े दिखते थे। लेकिन इसके पीछे उनकी अपने राज्य की सियासी मजबूरी अधिक थी। वहीं दूसरी ओर भाजपा अपने सहयोगियों को एकजुट रखने में पूरी तरह से सफल रही। हाल के दिनों में रिश्तों में उतार चढाव के बावजूद जदयू भाजपा के साथ खड़ी दिखाई पड़ रही है। यहां तक कि लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के सुप्रीमो चिराग पासवान भी मजबूती से भाजपा के साथ नजर आ रहे हैं। इससे साफ है कि राष्ट्रपति चुनाव के बहाने ही भाजपा ने बिहार में अपना सियासी समीकरण बेहतर करने की भी कोशिश की।
कुल मिलाकर राष्ट्रपति चुनाव में भी विपक्ष की रणनीति कमजोर ही दिखी है। दरअसल, उसे पहले से ही पता था कि जीतने के लिए जो संख्या बल चाहिए वह भाजपा गठबंधन के पास पहले से ही है। ऐसे में विपक्ष हार-जीत के चक्कर में पड़े बगैर इस चुनाव का उपयोग अपने पक्ष में नया समीकरण बनाने के लिए कर रहा था, मगर कामयाब नही हुआ।

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