“भाजपा ने द्रौपदी मुर्मू के बहाने साधे सभी समीकरण”


क्रांति कुमार पाठक

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की ओर से जहां आज राष्ट्रपति पद के लिए द्रौपदी मुर्मू ने अपना नामांकन पत्र दाखिल किया। वहीं विपक्षी दलों ने इस पद के लिए पूर्व केंद्रीय वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा को अपना उम्मीदवार बनाया है। वैसे तो दोनों पक्षों की विभिन्न दलों से जुड़े वोटरों को रिझाने की प्रक्रिया अभी शुरू ही होने वाली है, लेकिन इसमें दो राय नहीं है कि प्रत्याशी चयन के प्रथम चरण में ही राजग गठबंधन ने विपक्ष को सकते में डाल लगभग निर्णायक बढ़त हासिल कर ली है। जीत हार से पड़े इस चुनाव में दोनों पक्षों को सुचिंतित रणनीति और बेहतर तालमेल का परिचय देते हुए 2024 के लोकसभा चुनावों के लिहाज से खुद को मजबूत स्थिति में पेश करना था। इस दृष्टि से विपक्ष के प्रत्याशी चयन की प्रक्रिया पर नजर डालें तो तालमेल की कमी शुरू से ही झलकने लगी थी। अन्य दलों से सलाह -मशविरा किए बगैर तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी ने जिस हड़बड़ी में विभिन्न दलों की बैठक रख ली, उसे लेकर नाराजगी उस बैठक में साफ दिखा। जैसे तैसे मामला आगे बढ़ा और नामों पर विचार होने लगा तो पहले महाराष्ट्र के कद्दावर नेता शरद पवार ने विपक्ष का साझा राष्ट्रपति उम्मीदवार बनने से इंकार कर दिया उसके बाद फारुख अब्दुल्ला और गोपालकृष्ण गांधी ने भी सार्वजनिक तौर पर विपक्षी प्रत्याशी बनने के प्रति अनिच्छा जाहिर कर दी गई। दरअसल, नाम मीडिया में देने से पहले संबंधित व्यक्तियों से सहमति लेने की जरा सी सावधानी से इस सार्वजनिक फजीहत से बचा जा सकता था। इससे यही प्रतीत होता है कि विपक्ष की ओर से यह पहले ही हारी हुई लड़ाई थी और कोई भी उसमें बलिदान होने को तैयार नहीं था। इसके बाद विपक्ष द्वारा जिस तरह से चौथी पसंद के रूप में पूर्व केंद्रीय वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा के नाम पर सहमति बनाई, उससे वह एक मजबूरी का विकल्प ही अधिक लगते हैं। विपक्षी उम्मीदवार के रूप में यशवंत सिन्हा का नाम घोषित के कुछ घंटों के भीतर ही राजग गठबंधन ने एक आदिवासी महिला को राष्ट्रपति भवन भेजने का प्रस्ताव देकर न केवल सबको चौंका दिया बल्कि विपक्षी खेमे में खलबली मचा दी।
बेशक आज के माहौल में यशवंत सिन्हा को उम्मीदवार बनाने के पीछे विपक्ष के अपने तर्क हो सकते हैं, लेकिन राष्ट्रपति चुनाव के मौजूदा समीकरणों के लिहाज से देखा जाए तो द्रौपदी मुर्मू को अपना उम्मीदवार घोषित कर राजग गठबंधन ने न केवल अपने कुछ दुविधाग्रस्त समर्थक दलों का मजबूत समर्थन हासिल कर लिया बल्कि विपक्षी खेमे में दुविधा और संदेह की स्थिति पैदा कर दी। इस चुनाव में राजग गठबंधन के लिए बीजद के समर्थन को काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा था, लेकिन नवीन पटनायक अपने पत्ते नहीं खोल रहे थे। ओडिशा की आदिवासी नेता द्रौपदी मुर्मू का नाम सामने आते ही नवीन पटनायक ने इसका स्वागत करते हुए अपने समर्थन की घोषणा कर दी। इसके बाद दुविधाग्रस्त समर्थक दल जदयू ने भी अपने समर्थन का एलान करने में देरी नहीं की।
मगर सबसे दिलचस्प स्थिति झारखंड मुक्ति मोर्चा की है। वह विपक्षी दलों की उस बैठक में शामिल था, जहां यशवंत सिन्हा के नाम पर सहमति बनी थी। अब हेमंत सोरेन जैसे जनजाति समुदाय के नेताओं के लिए बड़े धर्मसंकट और दुविधा की स्थिति उत्पन्न हो गई है। क्या वह चाहेंगे कि इतिहास उन्हें देश में पहली बार शीर्ष पद पर विराजमान होने जा रही जनजाति समुदाय की महिला की राह में बाधक बनने वाले नेता के रूप में याद करे? केवल हेमंत सोरेन ही नहीं छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान और ऐसे ही जनजाति बहुल राज्यों के विपक्षी नेताओं के समक्ष भी यह संकट उत्पन्न होगा कि वे पार्टी लाइन पर मतदान करें या फिर अपनी अस्मिता के पहलू को प्राथमिकता दें।
यह एक संयोग ही है कि इस बार रायसीना की राह में उतरे दोनों उम्मीदवारों का झारखंड से कोई न कोई संबंध है। यशवंत सिन्हा जहां अविभाजित बिहार में जन्मे और झारखंड की राजनीति में सक्रिय रहे, वहीं द्रौपदी मुर्मू झारखंड की राज्यपाल रह चुकी हैं। अब दोनों अपने अभियान को परवान चढ़ाएंगे। यह अभियान चाहे जिस प्रकार चलाया जाए, द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति चुना जाना महज एक औपचारिकता मात्र रह गया है। आजाद भारत का इतिहास रहा है कि राष्ट्रपति चुनाव में कभी भी सत्तापक्ष के उम्मीदवार को हार का मुंह नहीं देखना पड़ा है। इस बार भी राष्ट्रपति चुनाव के लिए राजग का पलड़ा पहले से ही भारी था। निर्वाचक मंडल में करीब 49 फीसदी मत पहले से ही उसके पास थे। बीजद द्वारा द्रौपदी मुर्मू के लिए समर्थन की घोषणा से आवश्यक मत भी पूरे हो गए हैं। जदयू ने भी द्रौपदी मुर्मू का साथ देने का एलान कर दिया है। यह लगभग तय हो गया है कि आने वाले दिनों में मुर्मू के लिए निरंतर बढ़ता ही जाएगा।
आखिर भाजपा ने तमाम संभावित नामों में से द्रौपदी मुर्मू के नाम पर ही मुहर क्यों लगाई? इस प्रश्न के उत्तर की पड़ताल में क‌ई पहलू स्पष्ट होते जाएंगे। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रतीकों की राजनीति में महारत रखते हैं और द्रौपदी मुर्मू के चयन में भी उनकी कसौटी में यह पैमाना प्राथमिकता में रहा। नरेंद्र मोदी ने पिछली बार दलित समुदाय से आने वाले राम नाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाकर चुनावी दृष्टिकोण से एक बड़े वर्ग तक संदेश देने में सफल रहे थे। उसका फायदा उनके दल को उत्तर प्रदेश में भरपूर मिला। इस बार उन्होंने आदिवासी समुदाय को साधने का प्रयास किया। भारतीय समाज में पारंपरिक रूप से उपेक्षित रहे दलित और आदिवासी जैसे समुदाय के लोगों को इस प्रकार शीर्ष स्तर पर प्रतिनिधित्व देकर मोदी सरकार अपने ‘सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास’ वाले समावेशी राजनीति के नारे को वास्तविकता का रूप देने के लिए तत्पर दिखाई पड़ती है। मुर्मू का राष्ट्रपति प्रत्याशी के रूप में चयन इसी कड़ी के अंतर्गत किया गया है। फिर हाल फिलहाल जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, उनमें आदिवासी समुदाय की अच्छी खासी आबादी है। इसे देखते हुए यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक और राजनीतिक मास्टरस्ट्रोक कहा जा सकता है। इसी वर्ष गुजरात, अगले वर्ष के अंत में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान जैसे प्रमुख राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। फिर उसके अगले वर्ष 2024 में लोकसभा चुनाव भी होने हैं। यह ध्यान रहे कि देश के करीब सौ से अधिक लोकसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जहां आदिवासी समुदाय निर्णायक भूमिका में हैं। ऐसे में भाजपा की मोदी सरकार का यह कदम राज्यों में भाजपा को बढ़त दिलाने के साथ ही अगले लोकसभा चुनाव में लगातार तीसरी बार केंद्र की सत्ता पर पकड़ बनाए रखने में मददगार हो सकता है। इसके साथ ही, द्रौपदी मुर्मू का ओडिशा से होना भाजपा के लिए इस प्रदेश में अपनी राजनीतिक ताकत को बढ़ाने में भी मददगार साबित होगा।
इस तरह, भाजपा राष्ट्रपति चुनाव में न केवल जीत की राह पर है, बल्कि उसने द्रौपदी मुर्मू के बहाने अपने सभी समीकरण भी साधने में सफलता हासिल कर ली है। इसके उल्ट खुद को मजबूत दिखाने में जुटे विपक्ष के हाथ से एक और मौका फिसल गया है।

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